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विस्तारसे विवेचन है । उससे मुक्त होनेके लिए ही संवर, निर्जरा आदि तत्त्वोंका विवेचन है । तात्पर्य यह कि जिन शासन जब स्वयं स्याद्वादमय है, तो उसमें प्रतिपादित आत्मस्वरूप स्याद्वादात्मक होना ही चाहिए। इस तरह दोनों नयोंसे तत्त्वको समझने और प्रतिपादन करनेसे ही तत्त्वोपलब्धि एवं स्वात्मोपलब्धि प्राप्य I साहित्यक प्रवृत्तियाँ और उपलब्धियाँ
।
आजसे पचास वर्ष पूर्व जैन साहित्य सबको सुलभ नहीं था। इसका कारण जो भी रहा हो । यहाँ साम्प्रदायिकता के उन्मादने कम उत्पात नहीं किया। उसने बहुमूल्य सहस्रों ग्रन्थोंकी होलो खेली है। उन्हें जलाकर पानी गरम किया गया है और समुद्रों एवं तालाबों में उन्हें डुबा दिया गया है। सम्भव है उक्त भयसे हमारे पूर्वजोंने बचे-खुचे वाङ्मयको निधिकी तरह छिपाया हो या दूसरोंके हाथ पड़नेपर अविनयका उन्हें भय रहा हो । प्रकाशनके साधन उपलब्ध होनेपर सम्भवतः उसी भयके कारण उन्होंने छापेका भी विरोध किया जान पड़ता है । परन्तु युगके साथ चलना भी आवश्यक होता है सेवकोंने उस विरोधका सामना करके भी ग्रन्थ प्रकाशनका कार्य किया । ग्रन्थ प्रकाशमें आ गये हैं । षट्खण्डागम, कषायप्राभृत, धवला - जयधवलादि टीकाएँ जैसे सिद्धान्त-ग्रन्थ भी छप गये हैं और जनसामान्य भी उनसे ज्ञानलाभ ले रहा है। इस दिशा में श्रीमन्तसेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन - साहित्योद्धारक - फन्डद्वारा डाक्टर हीरालालजी, उनके सहयोगी पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री, पं० हीरालाल - जी शास्त्री और पं० बालचन्द्रजी शास्त्रीके सम्पादन अनुवादादिके साथ षट्खण्डागमके १६ भागों का प्रकाशन उल्लेखनीय है । सेठ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमालासे स्वर्गीय पं० नाथूरामजी प्रेमीने कितने ही वाङ्मयका प्रकाशन कर उद्धार किया है। जीवराज-ग्रन्थमालासे डाक्टर ए० एन० उपाध्ये एवं पं० बालचन्द्रजी शास्त्रीने तिलोयपण्णत्ती आदि अनेक ग्रन्थोंको प्रकाशित कराया है । स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तारके वीर - सेवा - मन्दिर दिल्ली और वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट वाराणसीसे कई महत्त्वके ग्रन्थ प्रकट हुए हैं। श्री गणेशप्रसादवर्णी-ग्रन्थमालाका योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । जिस प्रकाशन संस्थासे सर्वाधिक जैन वाङ्मयका प्रकाशन हुआ, वह है भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला । इस ग्रन्थमालासे सिद्धिविनिश्चय जैसे अनेक दुर्लभ ग्रन्थ सामने आये हैं और आ रहे हैं । इसका श्रेय जहाँ स्व० पं० महेन्द्रकुमारजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० फूलचन्द्रजी, पं० हीरालालजी आदि उच्च विद्वानोंको प्राप्त है वहाँ ज्ञानपीठके संस्थापक साहू शान्तिप्रसादजी और अध्यक्षा श्रीमती रमारानीजीको भी है। उल्लेख्य है कि श्रीजिनेन्द्रवर्णीद्वारा संकलित-सम्पादित जैनेन्द्र- सिद्धान्त कोष ( २ भाग) का प्रकाशन भी स्वागतयोग्य है । इस प्रकार पिछले पचास वर्षोंमें साहित्यिक प्रवृत्तियाँ उत्तरोत्तर बढ़ती गयी हैं, जिसके फलस्वरूप बहुत-सा जैन वाङ्मय सुलभ एवं उपलब्ध हो सका है ।
स्व० डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्रीने विद्यादान और साहित्य-सृजनमें जो असाधारण योगदान किया है वह मुक्तकण्ठसे स्तुत्य है । लगभग डेढ़ दर्जन शोधार्थी विद्वान् आपके निर्देशन में जैन विद्या के विभिन्न अङ्गपर पी-एच० डी० कर चुके हैं और लगातार क्रम जारी है। भारतीय ज्योतिष, लोकविजय-यन्त्र आदिपुराणमें प्रतिपादित भारत, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियोंका योगदान जैसे अनेक ग्रन्थ-रत्न आपकी रत्नगर्भा सरस्वतीने प्रसूत किये हैं । पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्यकी भारतीने तो भारत के प्रथम नागरिक सर्वोच्च पदासीन राष्ट्रपति श्री वराह वेंकटगिरि तकको प्रभावित कर उन्हें राष्ट्रपति सम्मान दिलाया और भारतीय वाङ्मयको समृद्ध बनाया है । आदिपुराण, हरिवशपुराण, पद्म पुराण, उत्तरपुराण, गद्य चिन्तामणि, जीवन्धरचम्पू, पुरुदेव चम्पू, तत्त्वार्थसार, समयसार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि अर्धशती ग्रन्थ-राशि आपके द्वारा अनूदित एवं सम्पादित हुई है । डा० देवेन्द्रकुमारजी रायपुरका 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डा० हीरालालजी जैनका 'णायकुमारचरिउ, डा० ए० एन० उपाध्येका गीतवीतराग, पं०
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अतएव कितने ही दूरदर्शी समाजफलतः आज जैन वाङ्मयके हजारों
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