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________________ विद्यापति : एक भक्त कवि ६६ रूप में ग्रहण कर जीव को उस माधुर्य लीला देखने को लालायित बताया गया है। उस लीला में संयोग श्रृंगार का सुन्दर रूप देखने को मिलता है । उसमें श्रृंगार की कहीं कोई उत्तानता नहीं मानी जाती । उस लीला में किसी को भी प्रवेश पाने का अधिकार नहीं केवल राधा की अन्तरंग सखियां हो उसमें जाने की अधिकारिणी मानी गई हैं। विद्यापति ने इसीलिए सखी भाव को ग्रहण कर निर्भय होकर अभिसार, श्रृंगार, संयोग प्रादि के मुक्त वर्णन किए हैं। ये वर्णन केवल अपने काम्य को रिझाने के लिए ही हैं और इसीलिए इनमें अभिव्यक्ति की सरलता, प्रगाढ तन्मयता और प्रेम की पूर्ण उत्कटता है। उसमें कहीं भी झिझक और संकोच को स्थान नहीं है । विद्यापति चैतन्य की भांति राधा और कृष्ण की प्रम लीला की झांकी पाने के लिए जिज्ञासु रहते थे और इसी लालसा पूर्ति के चित्र उनके काव्य में है जो उनकी महामुख दशा के मार्मिक स्वप्न और तज्जन्य आध्यात्म के संदेश देते हैं । इस संदर्भ में एक प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या आंखों देखा वर्णन करने या अश्लील वर्णन करने के लिए ही विद्यापति ने सखी भाव अपनाया था ? तो उसके लिए कहा जा सकता है कि वे जीव की सत्ता भगवान से भिन्न मानते थे। जीव और भगवान कभी एक नहीं हो सकते। इसलिए जीव को भगवान की लीला देखने को मिल जाय तो वह उसके लिए एक दुर्लभ प्राप्ति होगी । यों यह जीवात्मा कृष्ण की तदस्थ शक्ति प्रर्थात प्रकृति ही है और वह पुरुष है इसका उसे अभिमान है अतः शक्ति को प्राप्त करने के लिए एवं पुरुषत्व का दंभ दूर करने के लिए ही उन्होंने यह सखी भाव अपनाया । यह कहा जाता है कि ब्रज की यह लीला इतनी महान और गोपनीय है कि ब्रज में हुए ऐतिहासिक राधा कृष्ण को भी इसमें प्रवेश का अधिकार नहीं है। लेकिन विद्यापति वृन्दावन के इन्हीं ऐतिहासिक राधा-कृष्ण को लेकर उस अनिर्वचनीय लीला का स्मरण, जो महासुख मयी बनकर सदैव हुआ करती है, इन्हीं लीलाओंों के वर्णन में तीव्रानुभूति लाकर करना चाहते थे । यही उनके लिए परमसुख था । अतः उनका यह लौकिक लीलाम्रों का ज्ञान, जिन्हें हम अस्वस्थ, अश्लील या उत्तान शृंगार कहते हैं, वस्तुतः अलौकिक लीला का ही गान था । विद्यापति ने राधा-कृष्ण की लीलाओं का सखी रूप में भावनकर यह जो यथार्थं वर्णन किया है, यह कभी अस्वाभाविक नहीं हो सकता, क्योंकि साधारण स्त्रियों में भी अभिसार, श्रृंगार और उत्कट काम भावनाओं का स्थायी रूप में होना प्राकृतिक है। इसलिए यदि विद्यापति ने लीलाधारी की प्रणयावस्था अथवा राधाकृष्ण के संयोग के चित्र प्रस्तुत किए, नायक को उत्तेजित करने के उदाहरण उपस्थित किये, सद्यः स्नाता को निरखा, वियोग में विरह पीड़ित दिखाया और नखशिख वर्णन कर क्यः सन्धि कराई तो क्या अनुचित किया विद्यापति का जीवन दर्शन तो कहता है, यह सब उन्होंने उत्कृष्ट साधक या महासुख के प्रति असाधारण जिज्ञासु या भक्त बनकर ही यह सब किया । विद्यापति को असाधारण विश्वास था कि नित्य लीला में प्रवेश पा सकता है अन्यथा महासुख की 'प्रवेश निषेध' देखकर प्रवेश के लिए अत्यन्त सशंकित हो तरह स्वयं को भगवान में मिलाकर एकत्वं नहीं चाहता। और अपने स्वतंत्र अस्तित्व से ही भगवान की लीलाओं का सानंद उठाना चाहता है । लौकिक लीला के गायन से लीलाओं में पुरुष को लीला जाना पड़ेगा ! वह तो अपना Jain Education International ही सखी रूप में जीव भवन के द्वार पर ही वस्तुतः भक्त प्रद्दतवादियों की अस्तित्व स्वतंत्र रखना चाहता है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211919
Book TitleVidyapati Ek Bhakta Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size2 MB
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