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आपाप्रवन अभिसार्यप्रवर अभिनय आनन्दाअन्यश्रीआनन्दा ग्रन्थ
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प्राकृत भाषा और साहित्य
कर सकना सम्भव नहीं प्रतीत होता । इस पद्य में कवि ने मेघ को मानव के रूप में चित्रित कर नाना प्रकार की भावनाओं का विश्लेषण किया है। कवि ने प्रकृति को मानव के रूप में देखा है :
जलहर संहर एह कोपइँ आढत्तओ अविरल धारा सार दिसामुह कतओ।
ए मई पुहवि भमंतो जइपिों पेक्खमि तव्वे जं जु करीहिसितंतु सहिहिमि ॥ -४।११ उन्मत्त पुरुरवा अपने पद का अनुभव कर मेघों को भी आदेश देता है कि वे अभी वर्षा बन्द कर दें। तत्क्षण ही उसे प्रकृति का मधुमय वातावरण आकृष्ट कर लेता है । यह वातावरण विप्रलम्भ को संवद्धित करने के लिये उद्दीपन है। महाकवि कालिदास ने उद्दीपन के रूप में भौरों की झंकार एवं कोकिल की कूक को आवश्यक माना है। पवन के प्रताड़न से कल्पतरु के पल्लव नाना प्रकार के हावोंभावों को प्रदर्शित करते हुए नृत्य करने लगे हैं। पुरुरवा की उन्मत्तावस्था वृद्धिंगत होती जाती है और वह वर्षा के उपकरणों को ही अपने राजसी उपकरण समझने लगता है । महाकवि ने उक्त अवस्था का प्राकृत-पद्य के माध्यम से निम्न प्रकार चित्रण किया है :
गंधमाइअ महुअर गीएहिं वज्जंतेहिं परहुअ तूरेहिं । पसरिअ पवणव्वेलिअपल्लव णिअरु,
सुललिअ विविह पआरं गच्चइ कम्पअरु ॥-वही० ४११२ कवि ने यहाँ राजा की भावना को प्रकृति में आरोपित किया है तथा उसकी मानसिक अवस्था का प्रतिफलन भी प्रस्तुत किया है।
राजा की प्रेमोन्मत्तावस्था वृद्धिंगत होती है । यह प्रिया के अन्वेषण में प्रवृत्त होता है । उसे ऐसा आभास होता है कि प्रिया से वियुक्त उन्मत्त गज, पुष्पों से युक्त पहाड़ी जंगल में विचरण कर रहा है। कुसुमोज्ज्वल गिरिकानन में विचरण करता हुआ अपने चित्त की विभिन्न भूमिकाओं का स्पर्श करता है। प्रियाविरह के कारण उसकी मानसिक दशा प्रतिक्षण उग्र होती जा रही है। महाकवि ने नेपथ्य से राजा की इसी अवस्था का सजीव चित्रण किया है । यथा :
दइआरहिओ अहि दुहिओ विरहाणगओ परिमंथरओ।
गिरिकाणणए कुसुमुज्जलए, गजजूहवई बहुझीण गई ॥ -वही४।१४ विरह की पराकाष्ठा वहाँ होती है जहाँ नायक अपने विवेक को खोकर चेतन-अचेतन का भेद खो बैठता है। उसे यह विवेक नहीं रहता कि तिर्यञ्च भी सार्थक वाणी के अभाव में किसी निश्चित बात का उत्तर नहीं दे सकते हैं । जब विरह की अन्तरावस्था अत्यधिक बढ़ जाती है, तब यह पराकाष्ठा की वृत्ति आती है। मेघदूत का यक्ष अपनी भाव-विभोर अवस्था के कारण ही 'धूमज्ज्योतिर्सलिल मरुताम्' के संघात मेघों द्वारा अपनी प्रिया के पास सन्देश भेजता है। भावों की पराकाष्ठा ही नायक को इस स्थिति में पहुँचाती है। पुरुरवा अपनी प्रेयसी के अन्वेषण में संलग्न होकर मयूरों से प्रार्थना करता है कि 'सर्वत्र विचरण करने वाले हे मयूरो, तुमने मेरी प्रेयमी को देखा है ? उस चन्द्रमुखी हंसगामिनी को तुम अवश्य ही पहिचानते होगे । मैं तुम्हें उसके चिन्हों को बतलाता हूँ। आशा है उन चिन्हों के बल पर
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