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जैनदृष्टि से यह आत्मा अनन्त काल तक निगोद अवस्था में रहा । जहाँ पर एक औदारिक शरीर के आश्रित अनन्त जीव रहते हैं । यह आत्मा की पूर्ण अविकसित अवस्था है। अकाम निर्जरा के द्वारा जब आत्मा पुण्यवानी का पुञ्ज एकत्र करता है तब वह वहाँ से पृथ्वीकाय, अप्काय, ते काय और वायुकाय में आता है । और वहाँ पर वह आत्मा असंख्यात काल तक रहता है । इन पाँचों निकाय में केवल एक इन्द्रिय होती है और उस इन्द्रिय का नाम है - स्पर्श इन्द्रिय । केवल स्पर्श इन्द्र के द्वारा ही उन आत्माओं की चैतन्य शक्ति अभिव्यक्त होती है । इन पाँचों निकायों में आत्मा अपार वेदनाओं का अनुभव करता रहा किन्तु उस अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उसके पास स्पर्श इन्द्रिय के अतिरिक्त कोई माध्यम नहीं था ।
जब भयंकर शीत ताप प्रभृति वेदनाएँ भोगतेभोगते कर्म दलिक निर्जरित होते हैं और पुण्य का प्रभाव बढ़ता है तब आत्मा को द्वितीय इन्द्रिय प्राप्त होती है। उस इन्द्रिय का नाम है रसना इन्द्रिय, रसना इन्द्रिय की उपलब्धि द्वीन्द्रिय अवस्था में हो जाती है और वह उसका उपयोग वस्तु के आस्वादन
३. वाणी- विवेक
तु तथा अव्यक्त स्वर के रूप में करता है । उसकी वाणी अविकसित होती है । तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय तक इन्द्रियों का विकास होता है तथापि इन्द्रियों में जो तेजस्विता, उपयोगिता होनी चाहिये वह नहीं हो पाती । नार कीय जीव, तिर्यञ्च जीव भी पञ्चेन्द्रिय संज्ञी हैं किन्तु मानव की भाँति वे इन्द्रियों का सदुप योग जन जन के कल्याण के हेतु नहीं कर पाते ।
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मानव इन्द्रियों का सदुपयोग भी कर सकता है और दुरुपयोग भी कर सकता है । इन्द्रियों का सदुपयोग कर वह साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त कर सकता है और दुरुपयोग कर नरक और निगोद की भयंकर वेदनाओं की भी प्राप्त कर सकता है ।
मैं इस समय अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में चिंतन न कर रसना इन्द्रिय के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करने जा रही हूँ । अन्य चार इन्द्रियों का कार्य केवल एक-एक विषय को ग्रहण करना है। स्पर्श इन्द्रिय केवल स्पर्श का अनुभव करती है । घ्राण इन्द्रिय केवल सुरभिगंध और दुरभिगन्ध को ग्रहण करती है । चक्षु इन्द्रिय रूप को निहारती है और श्रोत्रेन्द्रिय केवल श्रवण ही करती है । चार इन्द्रियों का केवल एक एक विषय है । पर रसना इन्द्रिय के दो विषय हैं- एक पदार्थ के रस का अनुभव करना और दूसरा बोलना है। यह इन्द्रिय पाँचों इन्द्रियों से सबल है । जैसे कर्मों में मोहनीय कर्म प्रबल है | वैसे ही इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय प्रबल है इसीलिए शास्त्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है
'कम्माणं मोहणीय अक्खाणं रसनी । बेइन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी प्राणी बोलते हैं पर बोलने की कला सभी प्राणियों में नहीं होती । विवेकयुक्त जो व्यक्ति बोलना जानता है वह वचन पुण्य का अर्जन कर सकता है और अविवेक युक्त वाणी से पाप का अर्जन होता है । वाणी के द्वारा ही अठारह पापों में मृषावाद, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, माया - मृषावाद - ये पाप वाणी के द्वारा ही होते हैं । इसीलिये भारत के तत्वचिंतकों ने भले ही वे श्रमण भगवान महावीर रहे हों या
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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