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सुदि ११ गुरुवारका था। सारे दिनका उपवास था; प्रभु श्रीगोवर्धनधरणके दर्शनकी बड़ी उत्कटता थी । उसी उत्कटतामें कहा गया है कि वहाँ मध्यरात्रि के समय आपको भगवान् श्रीगोवर्धनधरणका साक्षात्कार हुआ । उस आचार्यश्रीने प्रभुको सर्वात्म भावपूर्वक आत्मनिवेदन किया और रेशमका कण्ठसूत्र प्रभुके कण्ठ में पहिराया । संप्रदाय में यह दिन तबसे 'पवितरा एकादशी' की संज्ञासे पुष्टिमार्गके प्राकट्य - दिनकी हैसियत से माना जाता है । प्रतिवर्ष 'श्रावण शुक्ला एकादशी' पुष्टिमार्गीय वैष्णवोंके लिए परमोत्सवका दिन हो रहा है | इस प्रसंगका खयाल आचार्यश्रीने अपने 'सिद्धान्त रहस्य' नामक छोटे प्रकरणग्रन्थ के आरम्भ में दिया है। जैसा कि --
'श्रावणस्यामले पक्ष एकादश्यां महानिशि । साक्षाद्भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते ॥१॥ ब्रह्मसंबन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः । सर्वदोषनिवृत्तिः ॥२॥'
पुष्टिमार्गका आविष्कार
पुष्टिमार्ग-कृपामार्ग-अनुग्रहमार्ग यों तो कोई नई बात नहीं है । सृष्टिके आरम्भसे ही सबोंके लिए भगवान् की कृपा अनिवार्य बन रही है । तारतम्य इतना ही है कि जीवोंका लक्ष्य सृष्टिके प्रवर्तक ब्रह्मपरमात्मा भगवान् की ओर नहीं रहता है, केवल भौतिक तुच्छ सुखोंकी ओर ही सीमित रहता है - किसी जीवको ही इन तुच्छ, सुखोंके पार निःसीम सुखात्मक भगवान् की ओर जाता है । मेरा कुछ ही नहीं है, यहाँ जो कुछ भी है वह क्षणिक है और मृत्युके बाद कुछ कामका नहीं, यहाँ एवं मृत्युके बाद जो कोई अविचलित वस्तु है वह केवल भगवान् ही है, अतः जगत् के अपने सब कुछ व्यवहार प्रामाणिक रूपमें चलातेचलाते भी भगवदर्पण बुद्धिसे ही किया जाय, सतत भगवान्की शरणभावना ही रहे ।' गीतामें जिसकी सुस्पष्टता मिलती है वह शरणमार्ग ही 'पुष्टिमार्ग' के मूलमें पड़ा है। दूसरे दिन प्रातः काल में श्रीआचार्यजी ने अपने प्रिय शिष्य और सेवक दामोदरदास हरसानीको प्रथम ही यह आत्मनिवेदन दीक्षा दी। उस दिन तक, जबसे श्रीवल्लभकै सामान्यरूपमें आप दीक्षा देते थे वह विष्णुस्वामि-परंपराकी गोपाल मन्त्रवाली भागवती दीक्षा थी । पिताजी से आपको यह दीक्षा मिली थी और कृष्णसेवापर दम्भादिरहित और श्रीभागवतके जाननेवाले किसी भी अधिकारी वैष्णवराजके द्वारा भी होती थी; पुष्टिमार्गीय आत्मनिवेदन दीक्षा अब अधिकृत गुरुसे ही होनेका प्रघात शुरू हुआ, क्योंकि इस आत्मनिवेदन- दीक्षा स्वयं भगवान्ने श्रीवल्लभाचार्यजीको दी और आपने अपने प्रिय शिष्य दामोदरदास हरसानीको देकर प्रणालीका आरम्भ किया । श्री आचार्यजीको कोटिका पुरुष ही यह दीक्षा दे सके इतना इस दीक्षाका गौरव रहा। इसी कारणसे श्रीवल्लभ कुल में ही गुरुत्व भावना स्थिर रही है । इतर किसी भी वैष्णवको एवं श्रीवल्लभवंशमें पुत्रियों और arrer यह अधिकार नहीं रहा है ।
आज पुष्टिमार्ग में क्रमिक दो दीक्षाएँ होती हैं । १. प्राथमिक दीक्षाको 'नामनिवेदन' या 'शरणदीक्षा कहते हैं और २. द्वितीय सर्वोच्चदीक्षाको 'आत्म निवेदन' या 'ब्रह्मसंबन्ध दीक्षा' कहते हैं । प्रथम दीक्षाओं में शरण के लिए आये हुए किसी भी जीवको 'श्री कृष्णः शरणं मम' यह अष्टाक्षर मन्त्र गुरुकी ओरसे कानमें बोला जाता है । और तुलसी कण्ठी गले में पहिनाई जाती है । दूसरी दीक्षा में ऐसे नाम निवेदन प्राप्त जीवको पूर्व दिनके लिए शुद्धिपूर्वक उपवास व्रत कराया जाता है । दूसरे दिन प्रातः कालमें स्नानादिकसे निवृत्त होकर अत्यन्त शुद्ध रूपमें आये हुए दीक्षार्थीको गुरुके समक्ष शरण भावना पूर्वक जाने का होता है । गुरु दीक्षार्थीके. दाहिने हाथ में तुलसी पत्र रखवाकर आत्म निवेदन मन्त्रका अर्पण कराते हैं । माना गया है कि यह मूल मन्त्र 'दासोsहं, कृष्ण, तवास्मि' इतना छोटा ही था, जो श्रीआचार्यजीको भगवान् की ओरसे मिला, श्रीआचार्यजीने
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