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क्योंकि आगम साहित्य में कहीं-कहीं पर द्रव्य लेश्या के अनुरूप भाव परिणति बतायी गयी है, तो कहीं पर द्रव्यलेश्या के विपरीत भाव-परिणति बतायी गई है। जन्म से मृत्यु तक एक ही रूप में जो हमारे साथ रहती है वह द्रव्यलेश्या है । नारकीय जीवों में तथा देवों में जो लेश्या का वर्णन किया गया है वह द्रव्यलेश्या की दृष्टि से किया गया है । यही कारण है कि तेरह सागरिया जो किल्विषिक देव हैं वे जहाँ एकान्त शुक्ललेश्यी हैं वहीं वे एकान्त मिथ्यादृष्टि भी हैं । प्रज्ञापना में ताराओं का वर्णन करते हुए उन्हें पांच वर्ण वाले और स्थित लेश्या वाले बताया है ।" नारक और देवों को जो स्थित लेश्या कहा गया है संभव है पाप और पुण्य की प्रकर्षता के कारण उनमें परिवर्तन नहीं होता हो । अथवा यह भी हो सकता है कि देवों में पर्यावरण की अनुकूलता के कारण शुभ द्रव्य प्राप्त होते हों और नारकीय जीवों में पर्यावरण की प्रतिकूलता के कारण अशुभ द्रव्य प्राप्त होते हों। वातावरण से वृत्तियाँ प्रभावित होती हैं। मनुष्यगति और तिर्यञ्च गति में अस्थित लेश्याएं हैं। पृथ्वीकाय में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अप्रशस्त लेश्याएं बतायी हैं। ये द्रव्यलेश्या है या भावलेश्या ? क्योंकि स्फटिक मणि, हीरा, मोती, आदि रत्नों में धवल प्रभा होती है, इसलिए द्रव्य अप्रशस्त लेश्या कैसे संभव है ? यदि भाव लेश्या को माना जाय तो भी प्रश्न है कि पृथ्वीकाय से निकलकर कितने ही जीव केवल ज्ञान को प्राप्त करते हैं तो पृथ्वीकाय के उस जीव ने अप्रशस्त भाव-लेश्या में केवली के आयुष्य का बन्धन कैसे किया ? भवनपति और वाणव्यन्तर देवों में चार लेश्याएँ हैं—-कृष्ण, नील, कापोत और तेजो। तो क्या कृष्णलेश्या में आयु पूर्ण करने वाला व्यक्ति असुरादि देव हो सकता है ? यह प्रश्न आगममर्मज्ञों के लिए चिन्तनीय है । कहाँ पर द्रव्य लेश्या का उल्लेख है और कहाँ पर भावलेश्या का उल्लेख — इसकी स्पष्ट भेद-रेखा आगमों में की नहीं गयी है जिससे विचारक असमंजस में पड़ जाता है ।
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उपर्युक्त पंक्तियों में जैन दृष्टि से लेश्या का जो रूप रहा है उस पर और उसके साथ ही आजीवक मत में, बौद्ध मत में व वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में लेश्या से जो मिलता-जुलता वर्णन है उस पर हमने बहुत ही संक्षेप में चिन्तन किया है। उत्तराध्ययन, भगवती, प्रज्ञापना और उत्तरवर्ती साहित्य में लेश्या पर विस्तार से विश्लेषण है, किन्तु विस्तार भय से हमने जान करके भी उन सभी बातों पर प्रकाश नहीं डाला है। यह सत्य है कि परिभाषाओं की विभिन्नता के कारण और परिस्थितियों को देखते हुए स्पष्ट रूप से यह कहना कठिन है कि अमुक स्थान पर अमुक लेश्या ही होती है। क्योंकि कहीं पर द्रव्यलेश्या की दृष्टि से चिन्तन है, तो कहीं पर भावलेश्या की दृष्टि से और कहीं पर द्रव्य और भाव दोनों का मिला हुआ वर्णन है । तथापि गहराई से अनुचिन्तन करने पर वह विषय पूर्णतया स्पष्ट हो सकता है । आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी जो रंगों की कल्पना की गयी है उनके साथ भी लेश्या का किस प्रकार समन्वय हो सकता है इस पर भी हमने विचार किया है । आगम के मर्मज्ञ मनीषियों को चाहिए कि इस विषय पर शोधकार्य कर नये तथ्य प्रकाश में लाये जायें।
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सम्बर्भ एवं सन्दर्भ स्थल
१. बृहद् वृत्ति, पत्र ६५०
लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्त रूपा छाया । २ मूलाराधना ७ / ९६०७
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जवाहरले किन्हावीओ हवंति पुरिसस्स | अन्भन्तरलेस्साओ, तह किण्हादीय पुरिसस्स ॥
३ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४६४
लेश्या : एक विश्लेषण ४७१
वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा | सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ॥
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(ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ५३६ उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५४०
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५ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८६, प० सं० (प्रा० ) १।१४२-३ ।
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धवला १, १, १, ४, पृ. १४६
१० ततेणं से उसु उड्ढं बेहासं उव्दिहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई अभिहणई वत्तेति लेस्सेत्ति ।
धवला ७ २, १ सू० ३, पृ० ७
सर्वार्थसिद्धि २ / ६, तत्त्वार्थराजवार्तिक २/६/८
जाति २६८०१०१
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- भग० २ / ५। उ०-६.
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