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________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५२१ . (७) फागु-काव्य-ऋतु-वर्णन में फागु-काव्य जैन साहित्य की विशिष्ट साहित्यिक विधा है । फाल्गुन-चैत्र (बसन्त ऋतु) मास में इस काव्य को गाने का प्रचलन है। इसलिए इन्हें फागु या फागु-काव्य भी कहा जाता है। गरबा भी ऐसे उत्सवों पर गाये जाने वाले नृत्यगीत हैं। फागु और गरबा रास काव्य के ही प्रभेद हैं। इन काव्यों में शृगार-रस के दोनों रूपों-संयोग और वियोग का चित्रण किया जाता है। प्रवृत्तियों एवं काव्य शैली के आधार पर विद्वानों ने फागु की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से मानी है। डॉ० बी० जे० साण्डेसरा फागु को संस्कृत के फला शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं-फला-फगु---फागु ।' डिंगल कोश में फाल्गुन के पर्यायवाची फालगुण और फागण बताये हैं । इन व्युत्पत्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि फागु का उद्भव गेय-रूपकों काव्यों में वसन्तोत्सव मनाने से से हुआ है। इनमें मुख्य रूप से संयमश्री के साथ जैन मुनियों के विवाह, शृंगार, विरह और मिलन वणित होते हैं। जैन मुनि चूंकि सांसारिक बन्धन तोड़ चुके हैं, अतः उनके लौकिक विवाह का वर्णन इनमें नहीं मिलता । इन्हीं विषयों को लेकर जैन मुनियों ने १४वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी अनेक ऋषियों से सम्बन्धित फागु काव्यों का निर्माण किया। इस शृंखला की प्राचीनतम रचना जिनचन्द सूरि फागु (वि० सं० १३४६-१३७३) कही गयी है। अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ इस प्रकार हैं-स्थूलभद्र फाग (देवाल), नेमिफाग (कनकसोम),५ नेमिनाथ फाग जम्बूस्वामी फाग आदि । (८) धमाल-फागु-काव्यों के पश्चात् धमाल-काव्य-रूप का विकास हुआ। यों फागु और धमाल की विषयवस्तु समान ही है। होली के अवसर पर आज भी ब्रज और राजस्थान में धमालें गाने का रिवाज है। यह एक लोक-परम्परा का शास्त्रीय राग है। जैन कवियों ने इस परम्परा में अनेक रचनाएँ की हैं। यथा-आषाढ़भूति धमाल, आर्द्र कुमार, धमाल (कनकसोम) नेमिनाथ धमाल (मालदेव) इत्यादि । (e) चर्चरी (चांचरी)-धमाल के समान ही चर्चरी भी लोकशैली पर विरचित रचना है। ब्रजप्रदेश में चंग (ढप्प) की ताल के साथ गाये जाने वाले फागुन और होली के गीतों को चंचरी कहते हैं। अतः वे संगीतबद्ध राग-रागिनियों में बद्ध रचनाएँ जो नृत्य के साथ गायी जाती हैं, चर्चरी कहलाती है । प्राकृ-पैगलम् में चर्चरी को छन्द कहा गया है। जैन-साहित्य में चर्चरीसंज्ञक रचनाओं का आरम्भ १४वीं शताब्दी से हुआ।११ जिनदत्तसूरि एवं जिनवल्लभसूरि की चचियाँ विशेष प्रसिद्ध हैं, जो गायकवाड़ ओरियंटल सीरीज में प्रकाशित हैं। (१०) बारहमासा-बारहमासा, छमासा, चौमासा-संज्ञक काव्यों में कवि वर्ष के प्रत्येक मास, ऋतुओं अथवा कथित मासों की परिस्थितियों का चित्रण करता है। इसका प्रमुख रस विप्रलम्भ श्रृंगार होता है। नायिका के विरह १. प्राचीन फागु-संग्रह, पृ० ५३ २. परम्परा ३. सम्मेलन पत्रिका (नाहटाजी का निबन्ध 'राजस्थानी फागु काव्य की परम्परा और विशिष्टता') ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३७, पृ० ४४६, ४६६ ५. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, चै० ८६६ ६. सम्मेलन पत्रिका ७. सी० डी० दलाल-प्राचीन गुर्जर कवि-संग्रह, पृ० ४१, पद २७ ८. युगप्रधान जिनचंद्र सूरि, १० १९४-६५ ६. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग २ १०. हिन्दी छन्द प्रकाश, पृ० १३१ ११. जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १२, अंक ६ (हीरालाल कावडिया का 'चर्चरी' नामक लेख) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211834
Book TitleRajasthani Jain Sahitya ki Rup Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswawrup Mathur
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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