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डॉ. देवीलाल पालीवाल : राजस्थान के प्राचीन इतिहास की शोध : ६३५
टाड ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ की भूमिका में लिखा था, 'मैंने इन की (भारत के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली सामग्री की) जानकारी यूरोपीय विद्वानों को कराई है, परन्तु मुझे आशा है कि इससे अन्य लोगों को इस दिशा में और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी.' टाड की आशा निष्फल नहीं गई. १८७४ में प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डा. बूल्हर प्राचीन ग्रन्थों की तलाश में भारत आये और जैसलमेर भी गये. उनके साथ जर्मनी के एक अन्य बड़े विद्वान् हरमन याकोबी भी थे, जिन्होंने राजस्थान की प्राचीन देशभाषा अपभ्रंश के साहित्य का सर्वप्रथम वैज्ञानिक संशोधन एवं प्रकाशन प्रारम्भ किया था. वे कदाचित् यहाँ एक सप्ताह से अधिक नहीं रह सके. उन्होंने लिखा है, 'मरुधर प्रदेश के इस विकट भाग के इस विकट स्थान में, जहाँ खराब पानी और नहारू के रोग कीप्रचु रता है, अल्पकाल के लिये भी ठहरना कम कष्टदायक नहीं है.' अतएव वे स्पष्ट ही इस विशाल भण्डार में बहुत कम काम कर सके. फिर भी डा० बूल्हर के इस प्रारम्भिक कार्य का यह महत्व है कि उन्होंने राजस्थान के साहित्यसंग्रह को सबसे पहले संसार के सन्मुख उपस्थित किया. जैसलमेर भण्डार को पूरी तरह प्रकाश में लाने का श्रेय श्री श्रीधर रामकृष्ण भण्डारकर को है जो बम्बई सरकार की ओर से १६०५ में राजस्थान के प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक-संग्रहों का निरीक्षण करने भेजे गये थे. जैसलमेर पहुँचने पर श्रीभाण्डारकर को ज्ञात हुआ कि यहाँ एक नहीं दस पुस्तक-संग्रह हैं. आपने इनका विवरण प्रस्तुत किया और हर एक संग्रह की महत्वपूर्ण पुस्तक का भी उल्लेख किया. कुछ पुस्तकों का सारांश भी आपने अपनी विवरणी में दिया. वहाँ पुस्तकों की अवस्था बड़ी शोचनीय थी, श्रीभण्डारकर ने लिखा है कि 'इधर-उधर बिखरे ताड़पत्रों के ढेर और फटे हुए कागज-पत्रों के ढेर को देखकर यही कहा जा सकता है कि समय और असावधानता दोनों ने ही वहाँ विनाश का कार्य आरम्भ कर रखा है. श्री बूल्हर को वहाँ की संवत् ११६० की पुस्तक प्राचीनतम मिली थी, किन्तु श्री भंडार कर को उससे भी प्राचीन ग्रन्थ सं० १२४ का मिला. उन्होंने कुछ पुस्तकों की नकल भी कराई. श्रीभण्डारकर के बाद बड़ौदा सरकार की ओर से १९१५ में एक सुयोग्य विद्वान् श्री चिमनलाल दलाल ने जैसलमेर आकर वहाँ के मुख्य भण्डार के प्रायः सभी ताडपत्रीय ग्रन्थों की सूची बनाई जो बाद में गायकवाड़ ओरियण्ट सिरीज' में प्रकाशित की गई. जैसलमेर संग्रह का नियमित एवं विशेषरूप से व्यवस्थित निरीक्षण करने का श्रेय आचार्य श्री जिनविजयजी मुनि को प्राप्त है. यहाँ आप १९४२ में १०-१२ सुयोग्य लेखकों के साथ लगभग पांच महीनों तक रहे. मुनि श्री जिनविजय जी की गिनती आज राजस्थान के अग्रगण्य पुरातत्ववेत्ताओं एवं इतिहासज्ञों में है, और आपके निरीक्षण में राजस्थान के प्राचीन ग्रन्थों की शोध एवं सम्पादन कार्य किया जा रहा है. आपको जैसलमेर जाने की प्रेरणा जर्मनी में जर्मन विद्वान् डा. हर्मन याकोबी से हुई प्रत्यक्ष मुलाकात से प्राप्त हुई थी. पांच महीनों में श्रीमुनिजी ने अथक परिश्रम करके लगभग २०० ग्रन्थों की सम्पूर्ण प्रतिलिपियाँ कराई, जिनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश तथा प्राचीन देश्यभाषा में ग्रथित न्याय, व्याकरण, आगम, कथा, चरित्र, ज्योतिष, वैद्यक, छन्द, अलंकार, काव्य, कोष आदि विविध विषयों की रचनायें अन्तर्भूत हैं. इनके पचासों फोटोप्लेट भी उतरवाये गये हैं. मुनिजी ने वहाँ लोंकागच्छीय उपाश्रय के ज्ञान भण्डार का प्रथम बार निरीक्षण किया. तब से मुनिजी ग्रन्थों के सम्पादन एवं प्रकाशन का कार्य राजस्थान पुरातत्व मंदिर एवं विद्याभवन बम्बई से कराते रहे हैं और कई मूल्यवान् एवं अप्राप्त ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं. प्रख्यात जैन विद्वान् मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने भी जैसलमेर के ग्रन्थागारों को व्यवस्थित करने में दीर्घकाल पर्यन्त घोर परिश्रम किया है। आपने ग्रन्थों की व्यवस्थित सूचियाँ तैयार की, जीर्णशीर्ण प्रतियों के चित्र उतरवाये और भविष्य की सुरक्षा का सुन्दर आयोजन किया। जैसलमेर के अलावा उदयपुर, बीकानेर, जोधपुर, बूदी, किशनगढ़, नागौर, अलवर, हनुमानगढ़, राजगढ़ आदि विभिन्न स्थानों के राजकीय संग्रह भी ऐतिहासिक एवं साहित्य तथा प्राचीन ज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे हैं. श्रीधर भण्डारकर ने इनमें से अधिकांश संग्रहालयों का निरीक्षण किया था. श्रीधर के छोटे भाई श्री देवदत्त ने बाद में राजस्थानी प्राचीन साहित्य की खोज के लिये उदयपुर, जोधपुर, जयपुर, कोटा, किशनगढ़, सिरोही आदि राज्यों के दौरे किये. आपने अपने शोधकार्य का विवरण सरकारी पुस्तकों में प्रकाशित कराया. श्रीधर की सूची से कई पुस्तकें
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