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________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व (क) अपभ्रंश के द्वित्व्यंजन का लोप और उसके पूर्वस्थित स्वर का दीर्घीकरणः अप० अज्ज 7 रा० आज; अप० कज्ज (४०६, ३) 7 रा० काज; अप० भग्ग्रा 7 रा० भाग; अप० घल्लइ ( ३३४, १ ) 7 रा० घालइ ; अप० श्रप्पणउ (३३७, १ ) 7 रा० आपणउं; प्रप० जज्जरउ रा० जोजरउं; अप० वग्ग ( ३३०, ४) > रा० वाग । (ख) अप० के द्वित्व्यंजन का लोप और उसके परवर्त्ती व्यंजन-स्थित स्वर का दीर्घीकरण : अप० ढोल्ल ( ३३०, १) 7 अप० ढोलो; अप० वहिल्ल (४१२ ) रा० वहिलो; अप० हेल्लि (४२२) रा० हेली अप० अप्पणउ ( ३३७, १ ) > रा० अपाणो । (ग) अप० के द्वित् व्यंजन का लोप और उसके पूर्ववर्त्ती या परवर्त्ती स्वर में कोई परिवर्तन नहीं अप० नच्चाविउ (४२०, २) रा० नचाविउ प्रप० छोल्ल (३६५ )> (च) (घ) अप० द्वित्व्यंजन का लोप और उसके पूर्ववर्ती वर्ण का नासिक्यीकरणःखग्ग (३३०, ४०१ )> रा० खंग; अप० पहुच्चइ ( ४१६, १ ) > रा० पहुंचइ । रा० छोल; अप० झलक्क ( ३६५ ) > रा० झलक; अप० खुडुक्कर (३६५ )> रा० खुडुकइ; अप० विट्टाल (४२२ ) > रा० विटाल । Jain Education International १७१ अप के उन द्वित्व्यंजन युक्त शब्दों की शब्दार्थ विपर्यय होता हो । ऐसे शब्दों के तद्भव रूपों की स्थापना : स्वीकृति जिनके उपर्युक्त नियमों के अनुसार स्थान पर संस्कृत तत्सम् या उनके राजस्थानी इस प्रकार के शब्दों में 'धम्म' से 'धाम' न होकर 'धर्म' अथवा 'धरम' शब्दों को मान्यता प्राप्त हुई । इसी प्रकार 'कर्म' के प्रा० 'कम्म' का 'काम' न होकर 'कर्म' या 'करम' | स्वर्ग के प्रा० 'सग्ग' का 'साग' न होकर स्वर्ग' वा 'सरग' आदि । अन्य प्रवृत्तियों में श्रादि 'रण' और मध्यम 'रंग' का लोप; षष्ठी में 'का' की के तथा 'रा-री-रे' का विकास; 'हन्तो' विभक्ति के विविध रूपों का सभी कारकों में प्रयोग और शब्द के प्रथम वर्ण के 'अकार' के स्थान पर 'इ-कार' की मान्यता उल्लेखनीय हैं, जिनसे अपभ्रंश और राजस्थानी पृथकता स्थापित करने में सहायता प्राप्त हो सकती है । ७. राजस्थानी की डिंगल शैलो : डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ के विषय में पिछले वर्षों में अनेक विवाद चले । डा० तिस्सेतोरी से लेकर (१६१४) डॉ० मेनारिया (१९५०) तक अनेक कल्पनाएं' ' गवांरू' से आरम्भ हुई' और 'डींग हांकने' में समाप्त हुई । डा० तिस्सेतोरी ने डिंगल का अर्थ अनियमित तथा गँवारू बतलाया; डा० हरप्रसाद शास्त्री ने इसकी व्युत्पत्ति 'डंगल' से मानी, तो किसी ने डिंगल में 'डिम्भ + गल' की सन्धि का आरोप कर यह बतलाया कि जिसमें गले से डमरू आवाज निकलती हो वह 'डिंगल' है। इसी प्रकार 'डिम्भ + गल == For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211827
Book TitleRajasthan Bhasha Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaysinh Bhatnagar
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size3 MB
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