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राजस्थान भाषा पुरातत्व
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एक नवीन सामाजिक व्यवस्था में भाषा का पोषण हो रहा था । प्रचलित आर्य भाषा में नई-नई भाषाप्रवृत्तियों का समावेश हो रहा था । तत्सम शब्दों के अनेक तद्भव रूपान्तर हो रहे थे, अनार्य शब्दों को ( - क प्रत्यय लगाकर संस्कृत किया जा रहा था ( राज० घुत्र 7 घोत्र 7 घोटड़ 7 सं० घोटकः ) तो कहीं प्राकृत
( राज० मिल 7 बिल 7 भिल 7 प्रा० भिल्ल) । शब्दों को नये रूप मिल रहे थे । एक ही शब्द का उच्चारण विविध जातियां अपनी ध्वनि-संहति और मुखसुख प्रवृत्ति के अनुसार कर रही थीं, जिससे एक ही शब्द के अनेक रूप होने लगे थे ४१ । इस प्रकार इस आर्य-अनार्य सम्पर्क से प्राकृत भाषा के रूप में परिवर्तन स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी । परिणामतः एक नवीन भाषा 'अपभ्रंश' का विकास हुआ ।
राजस्थान पर प्राकृत प्रभाव ई० पू० की सहस्राब्दि से लेकर ई० पू० की अन्तिम शताब्दी तक बना रहा । इस समय तक यहां आर्य प्रभावपूर्ण रूप से फैल गये थे । इसके साथ ही अपभ्रंश का राजस्थानी रूप आरम्भ हो गया । इस रूप के विकास में सहयोग देने वाले थे भील ( भिल्ल ), गौभील । ( गौभिल्ल 7 गोहिल्ल), आभीर ( अभिल्ल ), गुर्जर, तथा कोल, मुन्डा और किरातों की सन्तानें एवं चारण, पड़वा, और भाट आदि । आर्यों के साथ इन जातियों के निकट सम्पर्क के कारण इनकी बोलियां भी अधिक प्रभावशाली हो रही थीं । गोपालन के कार्य में कुशल होने के कारण महाभारत के समय तक आभीर तो चातुवर्ण्य में सम्मिलित कर ही लिये गये थे । सम्भवतः आभीर ही पहली जाति थी जिसने आर्य परिवार से सम्बन्ध स्थापित किया था । भीलों में गायें चराने वाले प्रार्यों द्वारा गौभिल्ल ( गौ + भिल्ल ) कहलाये और आर्य वर्ण में सम्मिलित होने पर प्राभीर ( आर्य + भिल्ल = आ मिलृ० 7 ग्रामील 7 ग्राभीर) कहलाये । आभीर जाति के मूल उद्गम के विषय में जो अनेक कल्पनाएं की गई हैं वे सब निराधार हैं । वास्तव में परिवार में सम्मिलित किये गये भिल्ल ही आर्य + भिल्ल कहलाये | आर्य + भिल्ल का ही रूपान्तर आर्यभिल्ल या आ - भिल्ल हुआ । आ-भील के 'लू' का 'र्' में परिवर्तन होना इस मत को और भी अधिक पुष्ट कर देता है । ऊपर हम बता चुके हैं कि आर्य प्रसार के कारण आर्य भाषा संस्कृत के उदीच्य, मध्य और प्राच्य ये तीन रूप हो चुके थे । उत्तर में उदीच्य का प्रयोग होता था जिसमें 'ल' का प्रयोग न होकर ईरानी के समान सर्वत्र 'र' का ही प्रयोग होता था । आभीर शब्द में 'लू' के स्थान पर गित करता है कि उत्तर में ही प्रार्य भील संयोग हुआ था । इस प्रकार अमीर थी । इन्हीं की पेशेवर जाति गाय-बकरी चराने के कारण गूजर ( गौः + अ गूजर ) कहलायी ।
'र' का प्रयोग यह प्रमाभीलों की ही एक जाति + चर = गौर, गुर्जर,
४१ - - ( १ ) पंतजलि ने अपने महाभाष्य में ( ई० पू० २०० ) इस उच्चारण की अनेकता की प्रोर संकेत किया है और 'गौ' शब्द के अनेक अपभ्रंश रूप प्रस्तुत किये - " गौरित्यस्य शब्दस्या गावी गोणी गोपोत्तलिकेत्येवमादयोऽपभ्रशा: ' -- देखो कीलहानं द्वारा सम्पादित 'महाभाष्य- पृ० २०
(२) परवर्ती प्राकृत ग्रन्थों में तथा अनेक जैन सूत्रों में इन शब्दों का प्रयोग होने लगा था ।
(३) देखो, चण्ड कृत 'प्राकृत लक्षरण' गौगार्वी २, १६
(४) देखो -- सिद्धहेम व्याकरण 'गोणादयः - २, १७४ ।
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