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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
आपकी तीन रचनायें प्रसिद्ध हैं-१. पंचप्रस्थान न्याय-तर्क व्याख्या २. पानीय वादस्थल, ३. हेमचन्द्रीय द्वयाश्रय काव्य टीका।
(२०) जिनप्रभसूरि-जिनसिंह सूरि के शिष्य जिनप्रभसूरि मोहिलीवाड़ी (झुझुनु) के निवासी रत्नपाल एव खेतलदेवी के पुत्र थे । आपने सं० १३६६ में दीक्षा प्राप्त करके सं० १३४१ में आचार्य पद प्राप्त किया।
आपकी प्रमुख रचनायें श्रेणिकचरित एवं विविध तीर्थकल्प मौलिक कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त कल्पसूत्र, साधु प्रतिक्रमण, षडावश्यक, अनु योग चतुष्टयव्याख्या, प्रव्रज्याभिधान, कातंत्र विभ्रमटीका, अनेकार्थ संग्रह, शेष-संग्रह, विदग्धमुखमण्डन, गायत्री विवरण आदि पर टीका लिखी।
(२१) जिनकुशलसूरि- श्वेताम्बर सम्प्रदाय के तीसरे दादाजी जिनकुशलसुरि के गुरु कलिकालकल्पतरु जिनचन्द्र सूरि थे । सं० १३८३ में रचित इनकी एकमात्र कृति चैत्यवंदन कुलक वृत्ति है।
(२२) पद्मनन्दि-भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि जाति से ब्राह्मण थे। भट्टारक पद्मनन्दि भट्टारक बनने से पूर्व आचार्य पद से सुशोभित होते थे । ३४ वर्ष की आयु में सं० १६८५ में भट्टारक पद प्राप्ति करने वाले पद्मनन्दि ने अपनी भक्ति के प्रभाव से पाषाणमयी सरस्वती को मुख से बुला दिया था। आपका कार्यक्षेत्र मेवाड़, हाड़ौती, झालावाड़, टोंक आदि थे।
आपकी अधिकतर रचनाएँ पूजा, स्तोत्र, कथा आदि वर्गों में आती हैं-१. श्रावकाचार, २. व्रतोद्यापनपूजा, ३. नन्दीश्वर भक्तिपूजा, ४. सरस्वती पूजा, ५. सिद्धपूजा, ६. वीतरागस्तोत्र, ७. पार्श्वनाथस्तोत्र, ८. लक्ष्मीस्तोत्र, ६. शांतिनाथस्तवन, १०. परमात्मराजस्तोत्र, ११. भावना चौबीसा, १२. देवशास्त्रगुरुपूजा, १३. रत्नत्रय पूजा, १४. अनन्तव्रतकथा।
(२३) भट्टारक सकलकोति-सन्त सकलकीति का जन्म १४४३१ में करमसिंह एवं शोभादेवी के घर हुआ। आपका बचपन का नाम पूर्णसिंह पदर्थ था । २६ वर्ष की आयु में सम्पूर्ण सम्पत्ति को त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया। नैणवां नामक ग्राम में भट्टारक पद्मनन्दि के पास आप रहे। आपने न केवल स्वाध्याय किया अपितु शिष्यों को भी अध्यापन करवाया । ब्रह्म जिनदास ने आपको निर्ग्रन्थराज हरिवंशपुराणकार ने तपोनिधि तथा सकलभूषण ने पुण्यमूर्ति५ कहा । इनकी मृत्यु महसाना में १४६६ में हुई।
आपकी रचनाएँ लगभग ५० हैं। उनमें संस्कृत रचनाओं के नाम क्रमशः निम्न प्रकार है(१) मूलाचार प्रदीप, (२) प्रश्नोत्तरोपासकाचार, (३) आदिपुराण, (४) उत्तरपुराण (५) शान्तिनाथचरित,
१. हरषी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य उअरि सपर ।
चोउद त्रिताल प्रमाणि पुरइ दिनपुत्र जनमी ।। न्याति मांहि मुहुतवन्त हुंबड हरख बखाणिइए। करमसिंह वितपन्न उदयवन्त हम जाणीइय ।। शोभित तरस अरधांग मूली सहीस्य सुन्दरीय ।
सील स्पगारित अंग पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीय ।। ३. ततोऽभवत्तस्य जगत्प्रसिद्धेः, पट्टेमनोज्ञ सकलादिकीतिः ।
महाकवि: शुद्धचरित्रधारी, निर्ग्रन्थराजा जगति प्रतापी ।। ४. तत्पट्टपकेजविकासभास्वान्, बभूव निर्ग्रन्थवर: प्रतापी ।
महाकवित्वादिकलाप्रवीणः, तपोनिधिश्रीसकलादिकीतिः ।। तत्पट्टधारीजनचित्तहारी, पुराणमुख्योत्तमशास्त्रकारी । भट्टारक श्री सकलादिकीर्तिः, प्रसिद्धनामाजनि पुण्यमूर्तिः ।।
-जम्बूस्वामिचरितम्
-हरिवंश पुराण
-उपदेशरत्नमाला
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