________________ अर्थ होगा तब मानसिंहने अमरसिंहके वीरोंमें मुख्य भीम डोडियाको बातचीतके दौरान कोई ओछी बात कह दी और भीमने क्रोधित होते हुए कहा 'जब मेरा घोर युद्ध होगा वहाँ आप आयेंगे तो आपका जुहार करूंगा / ये पूर्व में कहे हुए वाक्य थे।' पूर्व में बताया जा चुका है कि भीमसिंह और मानसिंहके मध्यका यह झगड़ा और भीमसिंहका उपयुक्त कथन उस समय हुआ था जब मानसिंह अपमानित होकर कटु और ओछे वचन कहता हुआ अकबरके पास गया था। तो प्रथमचरणमें उसी वेलाका जिक्र होना चाहिए। राजप्रशस्तिमें इस प्रसंगके अंतर्गत श्लोक सं० 22 में 'अकब्बरप्रभोः पार्वे मानसिंहस्ततो गतः / गृहीत्वा दलं ग्रामे खंभनोरे समागतः // 22 // अमर काव्यमें ही श्लोक सं० 50 में-कोपाकुल स्मश्रु मुह स्पृशः च / जगाम दिल्लीश्वरपार्श्वमेवं, वार्तामिमां तत्र जगाद सर्व' और सदाशिव नागरकृत राजरत्नाकर' में 'स्मश्रु प्रमृज्य करजेन सवाहनीक. शीघ्र जगाम च चकत्तनेशगेहं, की भाषा और शब्द विन्याससे अमरकाव्यके अंश 'अकब्बरस्य पार्वेऽगाद् अमरेशः कुमारकः' पाठको मिलाने पर स्थिति साफ हो जायगी कि यह अंश किससे सम्बधित होना चाहिए / इन सारी बातोंको देखते हुए हमें यह मान लेना चाहिए कि अमरकाव्यकी प्राप्त प्रतिमें, जो यद्यपि बहुत प्राचीन है और सम्भवतः मूल आदर्श प्रति भी हो सकती है-इस चरणमें अशुद्धि हो गई है / यहाँ पाठ होना चाहिए ‘अकब्बरस्य पार्वेऽगाद अंबरेश कुमारकः' अर्थात् अम्बर या आमेराधिपतिका कुमार (मानसिंह) जब अकबरके पास गया / मल लेखकसे 'अंबरेश'के स्थानपर अमरेशः पाठ इससे आगे आने वाले चरणोंमें 'अमरेश' शब्दको बैठानेके प्रयासमें ध्यान विकेन्द्रित हो जानेके कारण हुआ हैऐसा सम्भव है / ऐसी अशुद्धियोंका हो जाना एक मनोवैज्ञानिक सत्य है / यदि यह मूल प्रति न होकर प्रतिलिपि हो तो प्रतिलिपिकारके अज्ञानके कारण भी ऐसा होना सम्भव है। शोधार्थीको पूर्ण अधिकार है कि वह निष्पक्ष होकर सम्यक् विचारके उपरान्त सत्यका अनुसंधान करता हुआ पांडुलिपियोंके अशुद्ध पाठोंका संशोधन करता हुआ अपनी खोजमें आगे बढे--उसी अधिकारका उपयोग करते हुए मैं यह संशोधन प्रस्तुत कर निवेदन करना चाहूँगा कि अबुलफजलके कथनकी इस ग्रन्थसे पुष्टि नहीं होती है / अमरसिंह कभी अकबर के दरबारमें उपस्थित नहीं हुआ / जब तक और कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिल जाते श्री श्यामलदास और श्री गौ० ही० ओझा द्वारा अनेक विचार मंथनके उपरान्त दिए गये निर्णयको ही अन्तिम माना जाना चाहिए। 1. राजरत्नाकर-(राज-प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान) ग्रं० सं० 718 / 2. अमरकाव्य--ग्रंथ सं. ७२०--राज. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शा० का० उदयपुर / 330 : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org