SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड एतेषां लक्षणं ब्रह्मन् वक्ष्ये श्रुणु समासतः । मातृकादियुतं मन्त्रं द्वादशाब्दं तु यो जपेत् ॥२१॥ क्रमेण लभते ज्ञानमणिमादिगुणान्वितम् । अल्पबुद्धिरिमं योग सेवते साधकाधमः ॥२२॥ योगशिक्षा उपनिषद् में भी मंत्रयोग का वर्णन अति संक्षिप्त रूप में किया है। मंत्रयोग के एक रूप का नाम जपयोग के नाम से भी विकसित है । इसकी प्रशंसा मनुस्मृति में भी की गयी है। जप सम्बन्धी विस्तृत वर्णन अन्य साहित्य में भी उपलब्ध है । त्रिशखी-ब्राह्मण उपनिषद्, दर्शन उपनिषद्, वराह उपनिषद् और शांडिल्य उपनिषद् में जप को व्रत के रूप में मान्य किया है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात जप सम्बन्धी हमें यहाँ पर उपलब्ध है और वह है जपविधि सम्बन्धी साधक को दी गयी स्वतन्त्रता ।१४ योगतत्त्व उपनिषद् में 'लययोग' का वर्णन इस प्रकार है लययोगश्चित्तलयः कोटिशः परिकीर्तितः । गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्भुञ्जन्ध्यायेन्निष्कलमीश्वरम् ॥२३॥ कुछ इसी प्रकार का वर्णन योगशिक्षा उपनिषद् में भी उपलब्ध है ।१५ हठयोग प्रदीपिका में नाद का वर्णन करते समय “लय" शब्द का उपयोग किया गया है जो सम्भवतः क्रिया का बोध कराता है । १९ घेरण्ड संहिता में लय योग का संदर्भ इस प्रकार है शम्भव्या चैव भ्रामर्या खेचर्या योनिमुद्रया। ध्यानम् नादं रसानन्दं लयसिद्धिश्चतुर्विधा ॥७-५॥ नादबिन्दु उपनिषद् में विस्तार के साथ लययोग के क्रम और प्रभाव का वर्णन और विश्लेषण किया गया है। वास्तव में यह सब वर्णन नाद (ध्वनि) पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए किया गया है और साधक निरन्तर अभ्यास से सर्व प्रकार की चिन्ताओं से मुक्ति प्राप्त करता हुआ और सब प्रकार के प्रयत्नों से परे एक ऐसी अवस्था में आ जाता है जिसे चित्त की विलीनता कहा जाता है।" निरन्तर एक ही ध्वनि अथवा एक ही प्रकार की आवाज पर ध्यान केन्द्रित करने पर शरीर के ऊपर सम्भवतः कुछ अद्भुत परिणाम होते हैं । चित्त की एकाग्रता की दृष्टि से क्रमबद्ध स्वर का आलम्बन स्वीकार करके उसे बाँधने का प्रयत्न किया गया है। चित्त की इस प्रकार की अवस्था लाने का प्रयत्न आधुनिक संगीत में भी प्रयोगात्मक रूप में विकसित हो रहा है। पेड़-पौधों पर और पशुओं पर एक विशेष प्रकार की संगीत लहरियों का प्रयोग कुछ वैज्ञानिकों ने आरम्भ किया है । जो परिणाम वनस्पति और पशुओं पर हो सकते हैं, उसी प्रकार के कुछ परिणाम अध्यात्म साधना में रत व्यक्ति पर भी अवश्य होते होंगे । इस प्रकार के शब्दों का प्रभाव योग के अन्य साहित्य में भी उपलब्ध है जो इस बात का संकेत है कि प्राचीन ऋषियों ने कुछ नियन्त्रण अपने हाथ में ले लिये थे। स्वर-योग का यह भाग वैज्ञानिक दृष्टि से शोध का विषय है।। ज्ञान, कर्म और भक्ति योग श्रीमद्भगवद्गीता के साथ सर्वाधिक जुड़े हुए प्रचलित शब्द हैं। योग के सम्पूर्ण साहित्य में किसी न किसी रूप में इन शब्दों का उपयोग मिलता है। इस विषय पर अधिक विस्तार से विवेचन न करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि एक ही विषय के ये तीन आयाम हैं। अथवा किसी भी काम को पहले समझना और फिर श्रद्धा और भक्ति के साथ क्रियान्वित करना। भक्तियोग पर तो जितना लिखा जाय उतना ही कम है । भागवत धर्म में नवधाभक्ति का विस्तृत विश्लेषण हुआ है । भक्ति मार्ग का ही एक रूप पराभक्ति है। इन तीनों योग की विधाओं में वैराग्य भावना पर बहुत जोर दिया गया है। भारतीय सांस्कृतिक जीवन-बौद्ध, जैन और वैदिक परम्परा में वैराग्य भावना को विकसित करने का सदा आग्रह किया गया है। वस्तुत: वैराग्य भावना विकसित होतेहोते साधकों को बहुत से अनुभव होने की परिस्थिति निर्मित हो जाती है। आधुनिक समाजशास्त्रियों ने भी वैराग्य भावना से मिलते-जुलते विचार प्रगट किये हैं । समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री भी कुछ हिचकते हुए संग्रह वृत्ति की ओर संकेत करते हैं। समाज में समान भावना प्रेषित करने की दृष्टि से अपरिग्रह और वैराग्य अतीव आवश्यक है। त्रिशिखी ब्राह्मण उपनिषद् में ज्ञान और कर्म योग के विषय में विस्तृत विश्लेषण उपलब्ध है । जीवन की ये विधाएँ सामाजिक विषमताओं को कम करने में भी किसी दृष्टि तक सम्भवतः उपयुक्त मानी गई हैं। यदि ऐसा कहें तो अति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211796
Book TitleYog Swarup aur Sadhna Ek Sarvangin Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA D Batra
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy