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अर्चनार्चन
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पंचम खण्ड / १६४
समता है, प्रेम से शत्रु भी मित्र बन जाता है, वैसे ही योगाभ्यास से चंचल मन स्थिर हो जाता है।
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वचनजय -- वाणी प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की होती है । अप्रशस्त अर्थात् हिसाकारी, क्रोधकारी, मर्मभेदी, कष्ट पहुँचाने वाली वाणी का साधक परित्याग करे जिस वचन से किसी की आत्महत्या हो या मारणान्तिक उपसर्ग हो उसका त्याग करके मौन आराधना करना इत्यादि वचनविजय है।
योगाभ्यास से वाचाल साधक व्यर्थ की बातों का परित्याग कर मौन साधना में संलग्न होता है ।
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काय जय कायजय अर्थात् कायोत्सर्ग काया की अप्रशस्त प्रवृत्ति का निरोध, कायिक स्थिरता का अभ्यास इत्यादि कायजय है ।
आवश्यक सूत्र का पाठ है ताव कार्य ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि धर्यात् (काया से ) एक घासन पर स्थिर होकर ( वचन से) मौनपूर्वक ध्यानस्थ होकर मैं अपनी काया का परित्याग करता हूँ अर्थात् शरीर से पर होकर आत्मा में लीन होता हूँ। साधक व्यर्थ का समय न खोते हुए जब भी समय मिले कायोत्सर्ग में स्थित रहे ।
आहारविजय एक मार्ग
आहार हितकर, परिमित श्रोर शुद्ध होना श्रावश्यक है। प्रति प्रहार से मनुष्य दुखी होता है। रूप, बल और शरीर क्षीण होते हैं। प्रमाद, निद्रा और आलस्य बढ़ जाते हैं। अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । अतः प्रहार पर विजय करने पर ही साधक अपनी साधना में स्थिर रह सकता है।
निद्राविजय एक मार्ग
साधना के क्षेत्र में निद्रा बाधक तत्त्व है। अति निद्रा से समय का बढती है और आयु घटती है प्राहारविजय से ही निद्राविजय का साधक निद्रा से पर होकर ही साधना में संलग्न हो सकता है। कामविजय एक मार्ग
व्यय होता है, बेचैनी होना संभव है। प्रत
काम मन का सबसे भयंकर विकार है। काम से मन चंचल होता है, बुद्धि मलिन होती है और शरीर क्षीण होता है। अतः साधक ब्रह्मचर्य की कठोर साधना से इस विकार से मुक्त रहे । भयविजय एक मार्ग
अनेक विकारों में भय भी एक विकार है । भय से मन कायर होता है, आत्मविश्वास नष्ट होता है और मानसिक रोगों का संवर्धन होता है, अतः साधक के लिए प्रभय बनना ही उचित मार्ग है ।
संशयजय एक मार्ग
जिस साधक को अपनी साधना में ही संशय होता है वह कभी भी सफल नहीं हो पाता । संशयशील मानव हर समय यही ध्यान रखता है कि कोई उसकी आलोचना करता है, उसके विरुद्ध
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