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________________ योग क्यों ?/२३३ यम-नियम, दोनों ही हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक प्राचरण को अनुशासित कर सकते हैं, पर विशेष रूप से अहिंसा और अपरिग्रह हमारे पाज के विश्व की परमावश्यकता है। आज का समाज अहिंसा के लिए प्यासा है। आज सर्वत्र हिंसा का भैरवी ताण्डव है, मृत्यु एवं ध्वंस की विभीषिका है। विज्ञान की तथाकथित उपलब्धियों से प्रमत्त मानव अहिंसा से विमुख है । पर उसे नहीं मालम कि अहिंसा और अपरिग्रह ही आज की हिंसामय परिस्थितियों पर अंकुश लगा सकते हैं। अहिंसा बैर का प्रतिकारक (Antidote) है, "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वरत्यागः।" अपरिग्रह के होने पर अहिंसा तो स्वतः फलित होगी ही। यदि लोभ नहीं है तो द्वेष क्यों उत्पन्न होगा और द्वेष के बिना हिंसा का जन्म कैसे होगा? भय, दुर्बलता या उद्विग्नता से हिंसा का उद्गम होता है, अहिंसा के साथ-साथ अभय और मक्रोध पनपते हैं। प्राज अहिंसा का दृष्टिकोण ही हमें अवश्यंभावी विनाश से बचा सकता है : जमी का चप्पा चप्पा कत्लगाहे आदमियत है खदा महफूज रक्खे आये दिन कातिल बदलते हैं। इन 'कातिलों' को केवल अहिंसा ही परास्त कर सकती है। अहिंसा से प्रेम जन्म लेगा, हमारे हृदय में सारे संसार का दर्द होगा : ___ खंजर चले किसी पर तड़पते हैं हम 'अमीर' सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है। जब हम ऐसा सोचने लगेंगे तो किसी से क्यों नफ़रत करेंगे, किसी को क्यों मारेंगे? अहिंसा के साथ यदि अपरिग्रह होगा तो व्यक्ति हिंसा, द्वेष, वैमनस्य प्रादि दोषों से मुक्त रहेगा, वह सत्यशील होगा, क्योंकि वह निर्भय होगा, वह किसी की सम्पत्ति को क्यों चुराना चाहेगा (अस्तेय)? ऐसा व्यक्ति संयमी होगा और ब्रह्मचर्य का सतत पालन करेगा। उसके जीवन में शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान स्वयमेव प्रविष्ट हो जायेगे। अहिसा और अपरिग्रह का अभ्यासी व्यक्ति वैयक्तिक-विघटन तथा सामाजिक वैषम्य को मिटाते हुए समाज में प्रेम, सद्भाव, विश्वबन्धुत्व प्रादि दिव्योन्मुख मानवीय गुणों से एक विशेष वातावरण का निर्माण करेगा। और फिर, यह 'वातावरण' माज की परिस्थितियों की मांग भी है। मानव की भौतिक एवं पार्थिव उपलब्धियां अपरिमेय हैं, असीम है। उसकी विकास-यात्रा अप्रतिहत एवं अबाध है। उसे कोई वस्तु दुर्लभ नहीं : राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर के शब्दों में और मनुज की नयी प्रेरक ये जिज्ञासायें । उसकी वे सुबलिष्ठ सिंधु-मंथन में दक्ष भुजायें। अन्वेषिणी बुद्धि वह तम में भी टटोलने वाली। नव रहस्य, नव रूप प्रकृति का नित्य खोलने वाली । इस भुज, इस प्रज्ञा के सम्मुख कौन ठहर सकता है ? कौन विभव जो कि पुरुष को दुर्लभ रह सकता है ? - - पर यदि हमने योग का मार्ग नहीं अपनाया तो क्या हम इस 'विभव' को भोगने के लिए बच पायेंगे ? प्रतएव, आवश्यकता इस बात की है कि हम योग के व्यावहारिक एवं अखंडित आसमस्थ तम आत्मस्थ मन । तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211793
Book TitleYoga kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Sharma
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size518 KB
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