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उत्तर अपभ्रंश (यथा-रिसय, भरह, चक्क आदि) राजस्थानी, जूनी, गुजराती (यथा-काल, परवेश, कुमर, आणंद, डामी, जिणभई आदि) के साथ-साथ अनेक प्राचीन (यथा नमिवि, नरिंदह आदि), नवीन (यथा-वार, वरिस, फागुण) आदि एवं तत्सम (यथा--- चरित्र, मुनि, गुणगणभंडार आदि) शब्दों के भी प्रयोग हुए हैं।
प्रस्तुत रचना के लेखक शालिभद्र सूरि हैं । रचना में कवि ने उसके रचना स्थल की सूचना नहीं दी किन्तु भाषा एवं वर्णन प्रसंगों से यह स्पष्ट विदित होता है कि वे गुजरात अथवा राजस्थान के निवासी थे तथा वहीं कहीं पर उन्होंने इसकी रचना की होगी। कवि ने इसका रचना काल स्वयं ही वि० सं० १२४१ कहा है। यथा
"जो पढइ ए वसह वदीत सो नरो नितु नव निहि लहइ ए।
संवत् ए बार एकतालि फागुण पंचमिई एउ कोउ ए॥'
महाकवि अमरचन्द्र कृत पद्मानन्द महाकाव्य में बाहुबली के चरित्र का चित्रण काव्यात्मक शैली में हुआ है । उसके नौवें सर्ग में भरत-बाहुबली जन्म एवं १७वें सर्ग में वणित कथा के आरम्भ के अनुसार दिग्विजय से लौटने प रभरत का चक्ररत्न जब अयोध्या नगरी में प्रविष्ट नहीं होता तब उसका कारण जानकर भरत अपनी पूरी शक्ति के साथ बाहुबली पर आक्रमण करते हैं और सैन्य युद्ध के पश्चात् दृष्टि, जल एवं मुष्टियुद्ध में पराजित होकर भरत अपना चक्ररत्न छोड़ता है किन्तु उसमें भी वह विफल सिद्ध होता है। बाहबली भरत के इस अनैतिक कृत्य पर दुखी होकर संसार के प्रति उदासीन होकर दीक्षा ग्रहण कर तपस्या हेतु वन में चले जाते हैं।
पद्मानन्द महाकाव्य में नवीन कल्पनाओं का समावेश नहीं मिलता । बाहुबली की विरक्ति आदि सम्बन्धी अनेक घटनाएं चित्रित की गई हैं । उनका आधार पूर्वोक्त पउमचरियं एवं पद्मपुराण ही हैं। कवि की अन्य उपलब्ध रचनाओं में बालभारत', काव्यकल्पलता, स्यादिशब्द समुच्चय एवं छन्दरत्नावली प्रमुख हैं।'
कवि अमरचन्द्र का काल वि० सं० की १४ वीं सदी निश्चित है। वे गुर्जरेश्वर वीसलदेव की राजसभा में वि० सं० १३०० से १३२० के मध्य एक सम्मानित राजकवि के रूप में प्रतिष्ठित थे ।' बालभारत के मंगलाचरण में कवि ने व्यास की स्तुति की है । इससे प्रतीत होता है कि कवि पूर्व में ब्राह्मण था किन्तु बाद में जैन धर्मानुयायी हो गया। जिस प्रकार कालिदास को 'दीपशीखा' एवं माघ को 'घण्टामाघ' की उपाधियां मिली थीं उसी प्रकार अमरचन्द्र को भी वेणीकृपाण" की उपाधि से अलंकृत किया गया था। कवि का उक्त प्यानन्द महाकाव्य १७ सर्गों में विभक्त है।
शत्रुञ्जय माहात्म्य में धनेश्वरसूरि ने भरत बाहुबली की चर्चा की है। उसके चतुर्थ-सर्ग में बाहुबली एवं भरत के युद्ध संघर्ष तथा उसमें पराजित होकर भरत द्वारा बाहुबली पर चक्ररत्न छोड़े जाने तथा चक्ररत्न के विफल होकर वापिस लौट आने की चर्चा की गई है। बाहुबली भरत के इस अनैतिक कृत्य पर संसार के प्रति उदासीन होकर दीक्षा ले लेते हैं। प्रस्तुत काव्य में कुल १५ सर्ग हैं तथा शत्रुञ्जय तीर्थ से सम्बन्ध रखने वाले प्रायः सभी महापुरुषों की उसमें चर्चा की गई है।
एक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि धनेश्वरसूरि ने वि० सं० ४७७ में प्रस्तुत काव्य को वलभी नरेश शिलादित्य को सुनाया था। किन्तु अधिकांश विद्वानों ने उसे इतिहास सम्मत न मानकर उनका समय ई० सन् की १३ वीं शती माना है । वे चन्द्रगच्छ के चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे।
१. दे० भरतेश्वर बाहुबलीरास-पद्य सं० २०३. २. सयाजीराव गायकवाड ओरियण्टल इंस्टीट्यूट (बड़ौदा १९३२ ई०) से प्रकाशित. ३. विणेष के लिए दे. संस्कृत-काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान (दिल्ली १९७१) पु. ३५३. ४. वही पृ० ३५२. ५. वही पु० ३५१. ६. वही पृ० ३५२. ७. बालभारत-पादिपर्व ११।६. ८. श्री पोपटलाल प्रभुदास (अहमदाबाद वि० सं० १६६५) द्वारा प्रकाशित. ६. शवजय माहात्म्य-१५/१८७. १०.११. दे० संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान पृ० ४५१.
आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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