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________________ पञ्चास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार नियमसार, अष्टपाहुड (दसणपाहुड चरित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, सीलपाहुड, एवं लिंगपाहुड) वारसाणुवेक्खा और भक्त संग हो। इनमें से आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने भावपाहड की गाथा सं० ४४ में सर्वप्रथम बाहुबली की चर्चा की और लिखा कि- "हे धीर-वीर, देहादि के सम्बन्ध से रहित किन्तु मान-कषाय से कलुषित बाहुबली स्वामी कितने काल तक आतापन योग से स्थित रहे ? वस्तुत: बाहुबली चरित का यही आद्यरूप उपलब्ध होता है। यह कह सकना कठिन है कि कुन्दकुन्द ने किस आधार पर बाहुबली को अहंकारी कहा तथा उससे पूर्व वे क्या थे तथा आतापन योग में क्यों स्थित रहे ? प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के पूर्व कोई ऐसा कथानक प्रचलित अवश्य था, जिसमें बाहुबली का इत्तिवृत्त लोक-विश्रुत था और आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे मान-कषाय के प्रतिफलके एक उदाहरण के रूप में यहां प्रस्तुत किया। परवर्ती बाहुबली चरितों के लेखन के लिए उक्त उक्ति ही प्रेरणा स्रोत प्रतीत होती है। आचार्य विमलसूरि कृत पउमचरियं के चतुर्थ उद्देशक में "लोकट्ठिइ उसभमहाणाहियारो" नामक प्रकरण में भरत-बाहुबली संघर्ष की चर्चा हुई है। कवि ने उसकी गाथा सं० ३६ से ५५ तक कुल २० गाथाओं में उक्त आख्यान अंकित किया है। उसके अनुसार बाहुबली भरत का विरोधी था और वह उसकी आज्ञा का पालन नही करता था। अत: भरत अपनी सेना लेकर बाहुबली से युद्ध हेतु तक्षशिला जा पहुंचा। वहां दोनों की सेनाएँ जझ जाती हैं। नरसंहार के बचने के लिए बाहुबली दृष्टि एवं मुष्टि युद्ध का प्रस्ताव रखते हैं। भरत उसे स्वीकार कर इन माध्यमों से युद्ध करता है, किन्तु उनमें वह हार जाता है। इस कारण क्रुद्ध होकर वह बाहुबली पर अपना चक्र फेंकता है। किन्तु वह भी उनका कुछ बिगाड नहीं पाता । भरत के इस व्यवहार से बाहुबली का मन विराग से भर जाता है और कषाययुद्ध के स्थान पर संयमयुद्ध अथवा परीषह-युद्ध के लिए वह सन्नद्ध हो जाता है। आचार्य विमलसूरि का जीवन-वृत्तान्त अनुपलब्ध है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान हर्मन याकोबी ने विविध सन्दर्भो के आधार पर उनका समय २७४ ई० माना है। यह भी अनुमान किया जाता है कि उन्होंने 'पूर्व साहित्य' की घटनाओं को सुनकर 'राघवचरित' नाम का भी एक ग्रन्थ लिखा था, जो अद्यावधि अनुपलब्ध है। उक्त पउमचरियं जैन परम्परा की आद्य रामायण मानी जाती है। इसकी भाषा प्राकृत है। उसमें कुल ११८ पर्व (सर्ग) एवं उनमें कुल ८२६६ गाथाएं हैं। उक्त ग्रन्थ को आधार मानकर आचार्य रविषेण ने अपने संस्कृत पद्मपुराण की रचना की थी। तिलीयपणती शौरसेनी आगम का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है। उसमें बाहुबली का केवल नामोल्लेख ही मिलता है और उसमें उन्हें २४ कामदेवों में से एक कहा गया है। उसमें यह भी बताया गया हैं कि ये कामदेव २४ तीर्थंकरों के समयों में ही होते हैं और अनुपम आकृति के धारक होते हैं।' तिलोयपण्णत्ती के कर्ता जदिवसह (यतिवृषभ) का समय निश्चित नहीं हो सका है किन्तु विविध तर्क-वितर्कों के आधार पर उनका समय ई० की ५ वीं ६ वीं सदी के मध्य अनुमानित किया गया है। प्रस्तुत तिलोयपणत्ती ग्रन्थ दिगम्बर जैन परम्परानुमोदित विश्व के भूगोल तथा खगोल-विद्या और अन्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक सन्दभों का अद्भुत विश्वकोष माना गया है। इस ग्रन्थ का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि ग्रन्थकार ने पूर्वागत परम्परा के विषयों की ही उसमें व्यवस्था की है, किन्हीं नवीन विषयों की नहीं। अतः प्राचीन भारतीय साहित्य इतिहास एवं पुरातत्त्व की दष्टि से यह ग्रन्थ मूल्यवान है । इसमें कुल ६ अधिकार तथा ५६५४ गाथाएं हैं। इसका सर्वप्रथम आंशिक प्रकाशन जैन सिद्धांत भवन आरा १० तथा तत्पश्चात् जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से सर्वप्रथम अधुनातम सम्पादकीय पद्धति से हआ है। १. दे. कुन्दकुन्द भारती, भावपाहुर गाथा ४ पृ. २६२. २. पउमचरियं (वाराणसी,१९६२) ४/३६-५५ पृ. ३३-३५. ३-४. दे० पउमचरियं मग्रेजी भूमिका पृ० १५. ५. जीवराज ग्रन्थमाला (सोलापुर, १९५१ १९५९) से दो बण्डों में प्रकाशित । ६-७. तिलोयपण्णत्ती ४/४७४ पृ० ३३७. ६. भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान (डॉ. हीरालाल जैन) प्रकाशक-मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद् भोपाल १९९२ पु. ६६. ६. Tilogya-Pannatti of yativrsabha के नाम से प्रकाशत (१९४१ ई०) गोम्मटेश दिग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211778
Book TitleYugo Yugo me Bahubal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size2 MB
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