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________________ युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व ६६ हो सकती है। अतः कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे हमें किसी भी प्रकार के कष्ट का सामना न करना पड़े। चिन्तन के पश्चात् यह नवनीत निकाला गया कि आने वाले आचार्यश्री को कोट के मुहल्ले में स्थित जो मसजिद है वहाँ पर ठहराया जाय क्योंकि वहाँ पर एक मुसलमान मरकर जिन्द हुआ है, वह रात्रि में किसी को अपने वहाँ रहने नहीं देता है । जो रात्रि में वहाँ रहते हैं वे स्वतः ही काल-कवलित हो जाते हैं। यति-भक्तों ने आचार्यश्री को पूर्व योजनानुसार इस मसजिद में ठहरने के लिए आग्रह किया और कहा कि इस मकान के अतिरिक्त कोई अन्य मकान खाली नहीं है। आचार्यश्री वहाँ ठहर गये । आचार्यश्री का शिष्य समुदाय भी अत्यन्त विनम्र था जो उनके इंगित पर प्राण न्योछावर करने के लिए सदा तैयार रहता था। उनके चुम्बकीय आकर्षण से शिष्यों का हृदय उनके प्रति नत था। आचार्यश्री ने मकान की स्थिति को देखकर अपने सभी शिष्यों को सूचित किया कि वे घबराये नहीं। परीक्षा सोने की होती है, उसे आग में डाला जाता है, तभी उसमें अधिक चमक और दमक आती है। हीरे को सान पर घिसा जाता है, ज्यों-ज्यों घिसा जाता है त्यों-त्यों वह चमकता है । मिट्टी के ढेले को जमीन पर डाला जाय तो वह उछलता नहीं, किन्तु गेंद जमीन पर नीचे डालते ही वह और अधिक तेज उछलती है । जिनके जीवन में तेज नहीं होता वे मिट्टी के ढेले की तरह होते हैं । परन्तु जिनमें तेज होता है वे गेंद की तरह प्रगति करते हैं। अतः तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है, कष्ट तुम्हारे जीवन को निखारने के लिए है। उनका हँसते और मुसकराते हुए मुकाबला करना है। सभी शिष्यों ने आचार्यश्री के उद्बोधक संदेश को सुना और उनमें दुगुना उत्साह संचरित हो गया। रात्रि का गहन अन्धेरा मंडराने लगा। जिन्द ने अपने स्थान पर विचित्र व्यक्तियों को ठहरे हुए देखा तो क्रोध से उन्मत होकर विविध उपसर्ग देने लगा। किन्तु आचार्यश्री के आध्यात्मिक तेज के सामने वह हतप्रभ हो गया, उसकी शक्ति कुण्ठित हो गयी। आचार्य भद्रबाहु विरचित महान् चमत्कारी "उवसग्गहरं स्तोत्र" को सुनकर वह आचार्यश्री के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध की क्षमायाचना करने लगा-भगवन् ! मुझे ज्ञात नहीं था कि आप इतने महान् हैं। आपके आध्यात्मिक तेज के सामने मेरी दानवी वृत्ति आज नष्ट हो गयी है । आज मेरा क्रोध क्षमा के रूप में बदल गया है। मैंने आज एक सच्चे व अच्छे सन्त के दर्शन किये हैं। मैं आपसे सनम्र प्रार्थना कर रहा हूँ कि यह स्थान अब सदा के लिए जैन साधु-साध्वियां और श्रावक-श्राविकाओं के ही धार्मिक साधना के लिए उपयोग में लिया जायेगा। मैं स्थानीय मौलवी के शरीर में प्रवेश कर यह स्थान जैनियों को दिलवा दूंगा । आचार्यश्री मौन रहकर जिन्द की बात को सुनते रहे। प्रातः होने पर यति भक्तगण इस विचारधारा को लेकर पहुंचे कि सभी साधुगण मर चुके होंगे। पर ज्यों ही उन्होंने सभी सन्तों को प्रसन्नमुद्रा में देखा तो उनके देवता ही कूच कर गये। जिन्द ने मौलवी के शरीर में प्रवेशकर मसजिद को जैन स्थानक बनाने के लिए उद्घोषणा की। और सर्वत्र अपूर्व प्रसन्नता का वातावरण छा गया। जैनधर्म की प्रबल प्रभावना हुई। दो सौ पचास घर जो ओसवाल थे उन्होंने पूज्य श्री के उपदेश से स्थानकवासी धर्म को स्वीकार किया और वर्तमान में नवीन कोट मुहल्ले में जो स्थानक है वही स्थानक पहले मसजिद का स्थानक था और उसी स्थान पर कुछ वर्षों पूर्व नवीन स्थानक का निर्माण किया गया है। आचार्यश्री ने सोजत में स्थानकवासी धर्म का प्रचार कर पाली की ओर प्रस्थान किया। पाली के श्रद्धालु लोगों का मानस उसी तरह नाचने लगा जिस तरह उमड़-घुमड़ कर घटाओं को देखकर मोर नाचता है। आचार्यश्री के प्रभावोत्पादक प्रवचनों में जनता का प्रवाह उमड़ रहा था। यतिगण देखकर उसी तरह घबरा रहे थे जिस तरह शृगाल सिंह को देखकर घबराता है। उन्होंने विचार किया कि ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे अमरसिंहजी का नदी की बाढ़ की तरह बढ़ता हुआ प्रभाव रुक जाय । गम्भीर विचार विनिमय के पश्चात् शास्त्रार्थ की आचार्यश्री को चुनौती दी। उन्हें यह अभिमान था कि आचार्यश्री में ज्ञान का अभाव है, वे तो केवल आचारनिष्ठ ही हैं। किन्तु जब शास्त्रार्थ के लिए आचार्यश्री तैयार हो गये तो यति समुदाय की ओर से बीकानेर से विमलविजयजी, जोधपुर से ज्ञान विजयजी, मेडता से प्रभाविजयजी और नागोर से जिनविजयजी ये चार मेधावी यति शास्त्रार्थ के लिए उपस्थित हुए। विविध विषयों पर शास्त्रार्थ हुआ। आचार्यश्री ने जब मुखवस्त्रिका का प्रश्न आया तब कहा कि आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर मुखवस्त्रिका का उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी विभाग में बताया गया है कि "मुहपोत्तियं पडिलेहिता पडिलेहिज्ज गोच्छगं ।"" अर्थात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गोच्छग की प्रतिलेखना करें। निशीथ भाष्य" में जिनकल्पिक श्रमणों का उल्लेख है वहाँ पर पाणिपात्र और पात्रधारी ये दो भेद किये हैं। दोनों ही प्रकार के श्रमण कम से कम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपधि रखते हैं। जिनकल्पिक श्रमणों के लिए भी मुखवस्त्रिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211777
Book TitleYugpravarttaka Krantikari Acharya Amarsinhji Vyaktitva aur krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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