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किया है, वह जैन परंपरा में चले आए एतत्संबंधी विचार-क्रम के अनुरूप है। ध्यान के सहयोगी हेतु बाधक हेतु, साधक का आचार व्यवहार, वृत्ति संयोजना आदि पर उन्होंने सुन्दर प्रकाश डाला है, जो उनकी लेखनी का कौशल है।
आचार्य सोमदेव का वैशिष्ट्य
आचार्य सोमदेव निश्चय ही एक बहुत बड़े शब्द-शिल्पी थे। अपनी कृति 'यशस्तिलकचम्पू' में उन्होंने जो सरस, सुन्दर, लालित्यपूर्ण संस्कृत में अपना वर्ण्य विषय प्रस्तुत किया है, वह निःसन्देह प्रशस्य है। उन्होंने शब्द संयोजना, भाव- सन्निवेशना एवं अभिव्यंजना का बहुत ही सुन्दर संगम अपनी इस रचना में चरितार्थ किया है।
आचार्य सोमदेव ने अपने महाकाव्य के काव्यात्मक, साहित्यिक संदर्भों में प्रतिभा नैपुण्य द्वारा बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। योग जैसे आध्यात्मिक साधनामूलक तात्विक विषय पर भी उनकी लेखनी का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने ध्यान से संबद्ध उन सभी पक्षों का नपे तुले शब्दों में, मनोज्ञ एवं आकर्षक शैली में जो विवेचन किया है, उसमें पाठक को स्वात्मानुभव तथा साहित्यिक रसास्वादन दोनों ही उपात्त होते हैं।
भारत के संस्कृत के महान लेखकों में यह अद्भुत सामर्थ्य रहा है कि उन्होंने कला, दर्शन और विज्ञान जैसे भिन्न-भिन्न विधाओं से संयुक्त विषयों का जो तलस्पर्शी विवेचन किया है, वह उनकी सर्वग्राहिणी प्रज्ञा तथा अभिव्यक्ति प्रवणता का द्योतक है, जिससे सामान्य जनों द्वारा नीरस कहे जाने वाले विषय भी सरस बन जाते हैं।
योग का क्षेत्र, जिसका ध्यान मुख्य अंग है, बड़ा ही व्यापक है। उसका प्रारम्भ योग के प्रथम अंग पाँच यमों की आराधना से होता है। योग साधना में प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि उसके जीवन में अहिंसा व्यापे । उसी का मतिफलन करुणा, दया और अनुकम्पा आदि में प्रकट होता है, जिनसे सम्यकत्व सुदृढ़ और समलंकृत बनाता है।
उसी प्रकार योगाभ्यास में आने वाले के मन, वाणी तथा व्यवहार में सत्य की प्रतिष्ठा हो, अर्थ लुब्धता उसके मन में जरा भी न रहे, पर द्रव्य को वह मिट्टी के ढेले के समान समझे, इन्द्रिय भोगों मे जरा भी गुमराह न बने, तृष्णा, लालसा तथा परिग्रह के मायाजाल से विमुक्त रहे, ऐसा किए बिना जो लोग कष्टकर, दुरुह मात्र, आसन एवं प्राणायाम आदि साधने में जुट जाते हैं, वे बाह्य प्रदर्शन में तो यत्किंचित चमत्कृति उत्पन्न कर सकते हैं, किन्तु उसे अध्यात्म-योग जरा भी नहीं सधता ।
हमारे देश में एक ऐसा समय रहा है, जब यम, नियम आदि की ओर विशेष ध्यान न देते हुए बाह्य चमत्कार एवं प्रदर्शन का
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भाव तथाकथित योगाभ्यासियों में बद्धमूल हुआ 'देह दुःखं महाफलम्' के सिद्धान्त ने उनके जीवन में मुख्यता ले ली । यों हठयोग ही उनका साध्य बन गया। वे यह भूल गए कि हठयोग तो राजयोग - अध्यात्मयोग का केवल सहायक का साधन मात्र है इसी तरह ध्यान योग के नाम से कतिपय ऐसे तान्त्रिक उपक्रम भी उद्भूत और प्रसृत हुए, जिनमें ऐहिक अभिसिद्धियों के अतिरिक्त अध्यात्मकोत्कर्ष के रूप में जरा भी फलवत्ता नहीं थी। आचार्य सोमदेव ने बड़े ही कड़े शब्दों में उनका खण्डन करते हुए योग साधकों को तद्विमुख होने को प्रेरित किया है। यमों तथा नियमों के जीवन में सिद्ध हो जाने पर साधक में पवित्रता, निर्मलता और सात्विकता का संचार होता है। वह आत्मोन्मुख रहता हुआ, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार आदि का जो भी अभ्यास रहता है। तदर्थ दैहिक स्वस्थता या नीरोगता की जो अपेक्षा है, वह इन द्वारा प्राप्त होती जाए, ताकि योग की आगे की भूमिका में बाधा न आए।
आचार्य सोमदेव चाहते थे कि योगी केवल कहने भर को योगी न रह जाए, उसके व्यक्तित्व और आभामण्डल से यौगिकता - योग साधना झलकनी चाहिये यह तभी होता है, जहाँ आ तथा रौद्र ध्यान का परिवर्जन कर साधक शुक्ल ध्यान का लक्ष्य लिए धर्म ध्यान में संप्रवृत रहता हो।
आचार्य सोमदेव की योग मार्ग के नाम से ध्यान पर एक स्वतन्त्र कृत्ति उपलब्ध है। यह कलेवर में लघु होते हुए भी ध्यान विषयक विवेचन की प्रौढ काव्यात्मक शैली में रचित विलक्षण पुस्तक है, जिसमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विभावना, विशेषोक्ति, समासोक्ति एवं अर्थान्तरन्यास आदि विविध अलंकारों के माध्यम से ध्यान का बड़ा ही विशद, मनोज्ञ तथा अन्तः स्पर्शी विश्लेषण हुआ है। शाब्दिक सुन्दरता के साथ २ सग्रधरा जैसे लम्बे छन्द में यह रचित है।
इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य सोमदेव ध्यान योग में विशेष अभिरुचिशील थे। यही कारण है कि उन्होंने यशस्तिलकचम्पू में प्रसंगोपात रूप में ध्यान का वर्णन किया है। इस वर्णन से यह प्रकट होता है कि उनकी यह मानसिकता थी कि ध्यान के इर्द-गिर्द सहायक साधनों के नाम से जुड़े हुए ये उपक्रम जो वास्तव में प्रत्यवाय - विघ्न रूप हैं, अपगत हो जाएं।
आचार्य सोमदेव द्वारा किया गया यह वर्णन ध्यान के क्षेत्र में आत्मोत्कर्ष को लक्षित कर अपेक्षित वैराग्य और अभ्यास को विशेष रूप से बल देने वाला है, क्योंकि इन्हीं से मनोजय, सिद्ध होता है। मन के विजित होने पर "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः १८ के अनुसार योग साधना में साधक सफलता प्राप्त करता जाता है।
अष्टदशी / 2210
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