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डा. नथमल टाटिया : मोक्षमार्गस्य नेतारम् के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दि : ५६५
तदर्थत्वात्..........तदनेन तव्याख्यानस्य शास्त्रत्वं निवेदितम्.' अतएव प्रस्तुत श्लोक जिस ग्रन्थ के आदि में पाया जाता है वह भी तत्त्वार्थविषयक होने के कारण तत्त्वार्थशास्त्र है. अर्थात् सर्वार्थसिद्धि को तस्वार्थशास्त्र तथा उसके रचयिता को तत्वार्थशास्त्रकार कहने में कोई बाधा नहीं. 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक में सूत्र के सभी लक्षण विद्यमान हैं. तभी तो स्वामी समन्तभद्र जैसे श्रेष्ठ चिन्तक और आचार्य विद्यानन्द जैसे गंभीर ताकिक इस इलोक से प्रेरणा लेकर क्रमशः आप्तमीमांसा और आप्तपरीक्षा की रचना करते हैं. अतएव इसे सूत्र और इसके रचयिता को सूत्रकार कहने में कोई असंगति लक्षित नहीं होती, चाहे वे आचार्य उमास्वामी हों या पूज्यपाद देवनन्दि. ईश्वरकृष्ण प्रणीत सांख्यकारिका प्रसिद्ध है. इसकी प्राचीन टीका युक्तिदीपिका में ईश्वरकृष्ण प्रणीत कई कारिकांशों को सूत्रसंज्ञा दी गई है. आचार्य धर्मकीर्तिरचित प्रमाणवातिक दिग्नागकृत प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या है. पर प्रमाणवार्तिक के टीकाकार कर्णगोमी ने प्रमाणवातिक के वाक्य को सूत्र तथा धर्मकति को सूत्रकार' कहा है. इस प्रसंग में आचार्य विद्यानन्द उद्धृत-सूत्रं हि सत्यं सयुक्तिकं चोच्यते हेतुमत्तथ्यमिति सूत्रलक्षणवचनात् —यह वचन भी स्मरणीय है. आचार्य उमास्वामी से भिन्न अन्य आचार्यों को तत्त्वार्थसूत्रकार कहा जा सकता है या नहीं ? हम देख चुके हैं, आचार्य विद्यानन्द को सूत्रकार शब्द से आचार्य उमास्वामी से अतिरिक्त अन्य तत्त्वोपदेशक आचार्य भी अभिप्रेत हैं. अतएव अन्य आचार्यों को भी तत्त्वार्थसूत्रकार कहना असंगत नहीं. इस प्रकार आप्तपरीक्षा की-तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः - इस उक्ति की भी संगति बैठ जाती है. पूज्यपाद देवनन्दि रचित सर्वार्थसिद्धि वृत्ति के महत्त्वपूर्ण सूत्रात्मक लक्षणवाक्यों की व्याख्या आचार्य अकलंक ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक (राजवातिक) में की है. अतएव उसे तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके कर्ता को सूत्रकार या तत्त्वार्थसूत्रकार कहने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए. अब हम आप्तपरीक्षागत और एक उल्लेख पर विचार करेंगे. आप्तपरीक्षा की द्वितीय कारिका के अन्वय के प्रसंग में कहा गया है-श्रेयसो मार्गः श्रेयोमार्गः..........तस्य संसिद्धिः सम्प्राप्तिः सम्यग् ज्ञप्तिर्वा, सा हि परमेष्ठिन: प्रसादाद्भवति मुनिपुंगवानां यस्मात्तस्मात्ते मुनिपुंगवाः सूत्रकारादयः शास्त्रस्यादौ तस्य परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रमाहुरिति सम्बन्धः. इस उद्धरण में सूत्रकारादयः शब्द के अन्तर्गत आदि शब्द से कौन अभिप्रेत है? अर्थात् सूत्रकार शब्द द्वारा वृत्तिकार, वार्तिककार आदि का भी बोध यदि मान लें तब आदि शब्द से किसका ग्रहण इष्ट होगा ? यहाँ आदि शब्द से श्रोता को ले सकते हैं. उपदेष्टा सूत्रकार शास्त्ररचना के पूर्व परापर परमेष्ठी की स्तुति करता है तो शिष्य श्रोता भी उपदेश ग्रहण के पूर्व परापरगुरुप्रवाह की गुणस्तुति अवश्य करता है. अर्थात् प्रस्तुत प्रसंग में श्रोता और व्याख्याता द्वारा परमेष्ठिगुणस्तोत्र की परम्परा विवक्षित है. आप्तपरीक्षा का निम्नोक्त उद्धरण इस विषय पर प्रकाश डालता है-तस्मान्मोक्षमार्गस्य त्तनोरं कर्मभूभृतां भेत्तारं विश्वतत्त्वानां ज्ञातारं वन्दे इति शास्त्रकारः शास्त्रप्रारम्भे श्रोता तस्य व्याख्याता वा भगवन्तं परमेष्ठिनं परमपरं वा मोक्षमार्गप्रणतृत्वादिभिर्गुणैः संस्तौति, तत्प्रसादाच्छ्योमार्गस्य संसिद्धेः समर्थनात्. यहाँ स्पष्टरूप से कहा गया है, 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' गुणस्तोत्र का कर्ता शास्त्रकार--श्रोता अथवा उसका व्याख्याता
१. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, पृ० २. २. देखो-युक्तिदीपिका, पृ० २-३. ३. देखो-कर्णगोमिकृत प्रमाणवार्तिकटीका, पृ० ४. ४. वही, पृ० १२. ५. वही, पृ०८. ६. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, पृ०६. ७. आप्तपरीक्षा, पृ० २६०, पादटिप्पण २. ८. आप्तपरीक्षा, पृ० ७-८. ६. आप्तपरीक्षा, पृ० १३.
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