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________________ एक जैन भील नेता श्री मोतीलाल तेजावत | २१७ ०००००००००००० ०००००००००००० CONDI ....: WOME - NITIN ...... UITMITTES SUBS JUNIA में पांव दे दिये जाते । उनकी जागृत आत्मा ने इस अन्याय के सामने विद्रोह किया और वह ठिकाने की नौकरी से त्याग पत्र देकर अलग हो गये। संवत् १६७७ की वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को चित्तौड़ जिले के मातृकुण्डिया नामक स्थान में आस-पास के किसान बड़ी संख्या में एकत्र हुए। किसान राजकीय शोषण से बुरी तरह संतप्त थे और नाना प्रकार के टैक्स वसूल किये जाते थे। राज्य कर्मचारियों के सामने किसी की भी इज्जत सुरक्षित नहीं थी। जूतों से पिटाई एक आम बात थी। किसान अपनी कष्टगाथा सुनाने हजारों की संख्या में उदयपुर पहुंचे और श्री तेजावत उनके अगुआ बने । उन्होंने महाराणा को २७ सूत्री मांगों का एक ज्ञापन दिया और किसानों ने राजधानी में डेरा डाल दिया। महाराणा ने किसानों को २१ में से १८ मांगें मान लीं। किन्तु जंगलात के कष्ट दूर नहीं हुए। वन्य पशु खेती को उजाड़ देते थे, किन्तु उन्हें निवारण की इजाजत नहीं मिली और बैठ-बेगार पूर्ववत जारी रही। किन्तु अपनी अधिकांश मांगें पूरी हो जाने से किसान अपने घरों को लौट गये । किसानों की संगठित शक्ति की यह पहली विजय थी, जिसने उनके हौसलों को बढ़ा दिया । श्री तेजावत को एक नयी राह मिल गयी। उन्होंने भील क्षेत्र में जन्म लिया था। भीलों की अवस्था से वह अच्छी तरह परिचित थे। भीलों को न भरपेट खाना मिलता था और न तन ढकने को कपड़ा। अपने श्रम से पहाड़ी धरती से जो थोड़ा बहुत उपजाते थे, उसका खासा भाग राज्यकर्ता और उनके सामन्त छीन लेते थे। श्री तेजावत ने भील क्षेत्र में घूमना शुरू कर दिया। उन्होंने भीलों को समझाना शुरू किया कि वे संगठित होंगे तो ही उनके शोषण का अन्त हो सकेगा। इस प्रकार भीलों में 'एकी' अर्थात् एकता आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने शपथ ली कि वे न बढ़ा-चढ़ा लगान देंगे और न बैठ-बेगार करेंगे। सामन्त इस आन्दोलन से चौंके और जब श्री तेजावत आकड गांव में ठहरे हुए थे तो झाड़ोल के जागीरदार ने श्री तेजावत को जान से मार देने का प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हुआ और श्री तेजावत भीलों की सेवा करने के लिए बच गये। श्री तेजावत का 'एकी आन्दोलन' दावानल की तरह फैलने लगा। वह मेवाड़ की सीमाओं को लांघ कर सिरोही, जोधपुर और गुजरात की दांता, पालनपुर, ईडर और विजयनगर आदि रियासतों में भी फैल गया। इन रियासतों की आदिवासी प्रजा समान रूप से शोषित और पीड़ित थी। उसने समझा कि श्री तेजावत के रूप में एक नया मसीहा उसके उद्धार के लिए प्रकट हुआ है। उसने एकता के मंत्र को अपना लिया और अन्याय को चुपचाप बस्ति करने से इन्कार कर दिया। रियासती सत्ताधीश घबराये और उन्होंने दमन का आश्रय लिया। मेवाड़ के भोमट इलाके में फौजकशी की गई और फौज ने मशीनगन से गोलियां चलाई। करीब १२०० भील जान से मारे गये। श्री तेजावत के पाँव में भी गोली और छरें लगे, किन्तु मील अपनी मुक्तिदाता को उठा ले गये और अज्ञात स्थान में छिपा दिया। इसके साथ ही श्री तेजावत का फरारी जीवन प्रारम्भ हो गया । वह आठ वर्ष तक भूमिगत रहे। रियासती शासक उनकी खोज में रहते थे, किन्तु उनका पता नहीं लगा पाये । भील उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे और उनकी सुरक्षा के लिए सदा सतर्क और चिन्तित रहते थे। जिस प्रकार भीलों ने राणा प्रताप का साथ दिया, उसी प्रकार उन्होंने श्री तेजावत को भी अपना आराध्य माना और पूरी निष्ठा के साथ उनकी सेवा की। किन्तु दीर्घकालीन फरारी जीवन में उन्हें जिन अभावों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। ब्रिटिश भारत में गांधी जी का असहयोग आन्दोलन चल रहा था, तो रियासतों में उसके साथ-साथ भील आन्दोलन की लहर चल रही थी। उस समय सिरोही रियासत के दीवान महामना मालवीय जी के पुत्र रमाकान्त मालवीय थे। उन्होंने श्री तेजावत से मिल कर आन्दोलन को शान्त करने की इच्छा प्रकट की। इस कार्य में उन्होंने राजस्थान सेवा संघ के अध्यक्ष श्री विजयसिंह पथिक की सहायता चाही। श्री पथिक जी मोतीलाल जी तेजावत से उनके अज्ञात निवास स्थान पर मिलें। श्री तेजावत से सिरोही के दीवान रमाकान्त जी मालवीय की भेंट का आयोजन किया गया। भीलों ने यह आश्वासन माँगा कि उनके तथा उनके नेता के साथ कोई विश्वासघात नहीं होगा। श्री मालवीय को तलवारों के साये में श्री तेजावत के शिवर तक पहुंचाया गया। इस शिविर में आने वाले प्रत्येक WIMES
SR No.211758
Book TitleMevad ka Ek Jain Bhil Neta Motilal Tejavat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhalal Gupt
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size583 KB
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