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________________ बहुत प्रभावित हुए और जहाजपुरके पास ढोकल्या गाँव प्रदान किया। इनके वंशज आजकल खेमपुर, धारता, व गोटियामें हैं । महपेराके फुटकर गीत मिलते हैं । (१८)धर्मसमुद्र गणि-थे महाराणा सांगाके समकालीन जैन साधु थे। खरतरगच्छीय जिनसागर सरिकी पट्ट परम्परामें विवेकसिंह इनके गुरु थे। इनकी कुल सात रचनाएँ-सुमित्रकुमार रास, कुलध्वज कुमार रास, अवंति सुकुमाल स्वाध्याय, रात्रि भोजन रास, प्रभाकर गुणाकर चौपई, शकुन्तला रास और सुदर्शन रास मिलती हैं। इन सात रचनाओंमेंसे वि० सं० १५७३ में 'प्रभाकर गणाकर चौपईकी रचना धर्मसमद्रने मेवाड़में विचरण करते हुए की ।२ (१९) बारहठ भाणा मीसण-गौड़ोंका बारहठ चारण भाणा मीसण महाराणा रत्नसिंह (वि० सं० १४८४-८८) का समकालीन था। चित्तौड़के पास राठकोदमियेका रहनेवाला था और अपने समयका प्रसिद्ध कवि था। बून्दीके सूरजमलने इन्हें लाख पसाव, लाल लश्कर घोड़ा और मेघनाथ हस्ती दिया था। महाराणा, सूरजमलसे नाराज थे। एक समय महाराणाके सामने भाणाने सूरजमलकी तारीफ की और उसे लाख पसाव, घोड़ा व हाथी देने की बात कही, इसपर महाराणा बड़े क्रोधित हुए तथा भाणाको मेवाड़ छोड़कर चले जानेको कहा। भाणा तत्काल मेवाड़ छोड़कर बून्दी चला गया ।४ भाणाके फुटकर गीत मिलते हैं। (२०) मीरांबाई-मीरांबाईके जन्म, परिवार व मृत्युके सम्बन्धमें विद्वान् एक मत नहीं हैं। अधिकांश विद्वान् इसका जीवनकाल वि० सं० १५५५ से १६०३ तक मानते हैं।" यह मेहताके राठौड़ राव दूदाके चतुर्थ पुत्र रत्नसिंहकी बेटी तथा महाराज सांगाके पाटवी कुँवर भोजराजकी पत्नी थी। इसका जन्मस्थान कुड़की नामक गांव और मृत्यु स्थान द्वारका था। इसके जीवनसे सम्बन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित है। __मीरांबाईके पदोंकी संख्या कई हजार बतलाई जाती है। हिन्दी साहित्य सम्मेलनसे 'मीरांबाईकी पदावली' नामक पुस्तकमें २०० पदोंका तथा राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरसे १०००से अधिक पदोंका संग्रह प्रकाशित हुआ है। डॉ० मोतीलाल मेठारियाके अनुसार मोरांबाईके पदोंको संख्या २२५-२५०से अधिक नहीं है। इसके रचे पाँच ग्रन्थ भी बतलाए गये हैं किन्तु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। श्री कृष्ण १. सांवलदान आशिया-कतिपय चारण कवियोंका परिचय, शोध पत्रिका वर्ष १२ अंक ४,१० ३७ । २. (i) जैन गुर्जर कवियो, भाग १ पृ० ११६, भाग ३ पृ० ५४८ । (ii) डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पु० २५२ ३. रामनारायण दूगड़-मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पृ० ५१ । ४. वही, पृ० ५१-५२। । ५. डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३१४ । ६. ओझा : राजपूतानेका इतिहास, दूसरी जिल्द (उदयपुर राज्यका इतिहास), पृ०-६७० । ७. डॉ० मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४५-४६ । ८. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबदकोस (भूमिका) पृ० १२६ । ९. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४७ । १०. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३२३ । २३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211757
Book TitleMevad praesh ke Prachin Dingal Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDev Kothari
PublisherZ_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf
Publication Year1977
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size2 MB
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