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________________ चतुर्थ खण्ड / २३४ __ जैन मुनियों के इन संस्कृतग्रन्थों में मेवाड़ के ग्रामीण जीवन की झांकी प्राप्त होती है। ये मुनि पैदल ही चलते थे। अतः इनका सम्पर्क समाज के हर वर्ग से बना रहता था। उन्होंने जो कुछ भी समाज में देखा उसका चित्रण अपने ग्रन्थों में किया है। इस दृष्टि से मेवाड़ के रीति-रिवाज, पहनावा,पर्व-उत्सव एवं रहन-सहन की प्रामाणिक जानकारी के लिये जैन मुनियों द्वारा प्रणीत संस्कृतसाहित्य का अध्ययन उपयोगी साबित होगा। इन कवियों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म रही है । एक कवि ने अपने ग्रन्थ में एक वृद्ध व्यक्ति का चित्रण करते हुए कहा है कि बुढ़ापे में व्यक्ति झुककर जमीन को देखते हुए चलने लगता है तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अपने खोये हए बचपन और यौवन को धरती में खोजता हुया चल रहा है। यथा असंभृतं मण्डनमंगयष्टेनंष्टं वने मे यौवनरत्नमेतत् । इतीव वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नधोऽधो भुवि बम्भ्रमीति ॥ धर्म. ४/५९ जैन मुनियों के द्वारा प्रणीत संस्कृतसाहित्य की एक विशेषता यह भी है कि पीढ़ियों तक वे संस्कृतकाव्य-रचना में संलग्न रहते थे। एक प्राचार्य के समीप रहने वाले प्राय: सभी जैनमुनि संस्कृत पढ़ते थे और काव्य-रचना करने में अपना समय व्यतीत करते थे । काव्य की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में भी उनके विचार थे कि काव्य वही श्रेष्ठ है जिसके आलोक से अन्य कवि भी कविता का प्रणयन करने में समर्थ हो सकें। जिस प्रकार एक चन्दन वृक्ष की गन्ध के सम्पर्क में समस्त वन के वृक्ष चन्दन की सुगन्ध वाले बन जाते हैं । यथा जयन्ति ते सत्कवयो यदुक्त्याः बाला अपि स्युः कविताप्रवीणाः । श्रीखंडवासेन कृताधिवासः श्रीखंडतां यान्त्यपरेऽपि वृक्षाः॥ इस भावना के कारण मेवाड़ में संस्कृतकाव्य-सृजन के कई केन्द्र स्थापित हो गये थे। जिनका संचालन जैन मुनि करते थे। चित्तौड़ का केन्द्र वीरसेन और हरिभद्रसूरि ने पुष्ट किया तो दिलवाड़ा के संस्कृत कविराज सोमदेव वाचक थे। डूंगरपुर और वागड़ क्षेत्र को सकलकीत्ति तथा उनके शिष्यों ने अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था तो गुणभद्रमुनि ने बिजौलिया को अपने संस्कृतकाव्य से अलंकृत किया था। इस तरह मेवाड़ का कोई क्षेत्र जैन मुनियों की संस्कृतकविता से अछूता नहीं है। अावश्यकता इस क्षेत्र के ग्रन्थ भण्डारों में पड़े हुए काव्यरत्नों को खोज निकालने की है। विशेष अध्ययन के लिये सन्दर्भग्रन्थ १. मेवाड़ का संस्कृत साहित्य को योगदान (थीसिस) १९६९, __ डॉ० चन्द्रशेखर पुरोहित । २. भट्टारक सकलकीति--एक अध्ययन (थीसिस), १९७६, डॉ. बिहारीलाल जैन। ३. समदर्शी हरिभद्रसूरि, बांठिया ४. जिनवल्लभसूरि का कृतित्व एवं व्यक्तित्व (थीसिस)-म. विनयसागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211755
Book TitleMewad me Sanskruti Sahitya ki Jain Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size484 KB
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