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________________ मेवाड़ के जैन वीर १३६. . ....................... पिता और बड़े भाई के समान अद्भुत गुणों और वीरता से भरा राजपुरुष था। हल्दीघाटी के युद्ध में ताराचन्द ने मेवाड़ की सेना के हरावल के दाहिने भाग में अपने भाई भामाशाह के साथ नेतृत्व व युद्ध किया था। प्रताप ने अपने अन्तिम समय में जब सारा ध्यान नई राजधानी उदयपुर में केन्द्रित कर दिया तब कुम्भलगढ़ व देसुरी के पिछले भाग में मारवाड़ के राठौड़ निरन्तर उत्पात मचाते थे। इस स्थिति पर नियन्त्रण के लिये प्रताप ने ताराचन्द को नियुक्त किया और ताराचन्द ने अपने युद्ध-कौशल एवं कूटनीति से उस सारे क्षेत्र को राठौड़ों से मुक्त कर उसे मेवाड़ राज्य का अभिन्न अंग बना दिया। ताराचन्द की सफलता पर प्रताप ने ताराचन्द को इसी गोड़वाड़ क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त कर दिया। ताराचन्द एक स्वतन्त्र प्रकृति का वीर पुरुष था और गोडवाड़ में एक स्वतन्त्र शासक की तरह जनता में लोकप्रियता से राज्य चलाता था । ताराचन्द ने साहित्य, संगीत और ललितकलाओं के विकास और उन्नयन के लिये साहित्यकारों को पूर्ण आश्रय एवं संरक्षण दिया । उसने जनता में वीर भावना का संचार करने के लिये जैन साधु लोक कवि हेमचन्द्र रत्नसूरि से 'गोरा बादल पद्मणि चऊपई' कथा की रचना करवाकर उसे गाँव-गाँव में प्रचारित करवाया। इस जैन कवि ने 'भामह बावनी' की रचना की जिसके ५२ छन्दों में भारमल, भामाशाह व ताराचन्द के कृतित्व-व्यक्तित्व का काव्यात्मक परिचय मिलता है। इसी बावनी की परम्परा में आगे चलकर रीतिकाल के प्रमुख वीर रस के कवि भूषण ने अपने आश्रयदाता शिवाजी पर 'शिवा बावनी' की रचना की। अलवर से मेवाड़ में आने के बाद भारमल तपागच्छ के बजाय लोकागच्छ का अनुयायी बन गया था। इसलिये भामाशाह ने अपने दीवान पद के कार्यकाल में और ताराचन्द ने अपने गोडवाड़ के प्रशासक पद के कार्यकाल में जैन धर्म के लोक प्रचार-प्रसार में भरपूर योगदान दिया। दोनों भाइयों के प्रयत्न से मेवाड़ में अनेक नये जैन ग्रामों की स्थापना हुई जिनमें 'भिंगरकपुर' उल्लेखनीय है, जो वर्तमान में भीण्डर है। भारमल, भामाशाह एवं ताराचन्द की सेवाओं के देखते हुए मेवाड़ के राजवंश ने इस कुल के उत्तराधिकारी को मेवाड़ राज्य के दीवान पद पर प्रतिष्ठित करने का स्थायी कुलाधिकार प्रदान किया और तदनुसार जीवाशाह व रूपाशाह आदि भामाशाह के पुत्र-पौत्र मेवाड़ राज्य के दीवान रहे। मेवाड़ के महाराणाओं ने भामाशाह के वंश की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिये समस्त जैन कुलों के भोज, उत्सव, पर्व आदि में भामाशाह के वंशज का प्रथम अभिषेक-तिलक, प्रथम सम्मान एवं प्रथम भोजन का विशेषाधिकार दिया तथा अन्य प्रभावशाली ओसवाल कुलों द्वारा इस परम्परा पर आपत्ति किये जाने पर महाराणा सज्जनसिंह एवं महाराणा फतहसिंह ने भी भामाशाह ने वंशजों की इस प्रतिष्ठा को यथावत् रखने के पुन: आदेश दिये। ___ भारमल, भामाशाह एवं ताराचन्द आदि की सेवाओं के कारण ही मेवाड़ राज्य में जैन धर्म को राजधर्म के समान प्रश्रय व सम्मान प्राप्त हुआ। आज समूचा मेवाड़ प्रान्त प्रसिद्ध जैन मन्दिरों, जैन आचार्यों एवं जैन उपाश्रयों का संगम केन्द्र हैं तथा प्रायः सभी जैन महामात्यों के कारण मेवाड़ में जैन धर्म का काफी विकास एवं प्रसार हुआ। रंगोजी बोलिया--रंगोजी बोलिया भी एक ऐसा अनूठा राजपुरुष है जिसकी कूटनीतिक सफलताओं ने एक हजार वर्ष से संघर्ष कर रहे मुगल व मेवाड़ के राजवंशों को परस्पर मैत्री भाव के सूत्र में बाँध दिया । युवराज कर्णसिंह और शाहजादे सलीम के बीच उदयपुर के जलमहल 'जगनिवास' में जो सन्धि हुई, उसका सूत्रपात रंगोजी बोलिया ने ही किया था। यह दो राजवंशों के बीच स्वाभिमानपूर्वक समान सम्मान की सन्धि थी जिसमें कर्णसिंह और सलीम ने परस्पर पगड़ी बदलकर आपसी भाईचारा स्थापित किया था और इस सन्धि की साक्षी के रूप में शहजादे सलीम ने एक कपड़े पर अपनी पूरी हथेली का केसर का पंजा अंकित किया था। सलीम की यह ऐतिहासिक पगड़ी आज भी राजमहल के संग्रहालय में सुरक्षित है। महाराणा अमरसिंह ने इस सन्धि की सफलता से प्रसन्न होकर रंगोजी बोलिया को चार गाँव, हाथी का होदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211750
Book TitleMevad ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShambhusinh
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ceremon
File Size2 MB
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