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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
चित्तौड़ के समिद्धं स्वर मन्दिर के खम्भों पर शिलालेखों सहित १२२९ ई० के उत्कीर्ण' रेखांकन प्राप्त हुए हैं.. उनकी अपनी विशेषताएँ हैं। ये चित्र तत्कालीन सूत्रधार शिल्पियों के हैं और उक्त जैन या अपभ्रंश शैली में प्रथम खम्भे पर सूत्रधार आल पुत्र माउकी तथा दूसरे खम्भे पर सूत्रधार श्रीधर के उत्कीर्ण रेखांकन बड़े एवं हाथ जोड़े दिखाये गये हैं। इनसे स्पष्ट है कि ये जिमी तत्कालीन जैन शैली की सभी विधाओं के अच्छे ज्ञाता थे। तत्कालीन पित्रों की भांति इन्होंने एक आंख बाहर निकलते हुए या चश्मी चेहरा, वस्त्र लहराते हुए नुकीली नाक एवं दादी आदि का रेखांकन किया है, जो मेवाड़ भूखण्ड में कला का प्रामाणिक स्वरूप बनाने में समर्थ हुए। इन शिलोत्कीर्ण चित्रों के ऊपर तिथि युक्त पंक्तियां चित्रों की पुष्टि में सहायक हैं।
मेवाड़ भूखण्ड गुजरात की सीमाजों से लगा हुआ है, यहाँ प्रारम्भ से ही जैन धर्मावलम्बियों के कई केन्द्र रहे हैं । कई जैन मन्दिर बने तथा ग्रन्थ लिखे गये । इन केन्द्रों पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सचित्र ग्रन्थ मिले हैं। महाराणा जैसिंह के शासनकाल में कई ग्रन्थ लिखे गये। इनमें ओपनियुक्ति वि० सं० १२०४ मुख्य है। चित्तौड़ के एक जैन श्रेष्ठी राल्हा ने मालवा में जाकर 'कर्मविपाक' वि० सं० १२६५ में लिखाया। इसकी प्रशस्ति में नलकच्छपुर नाम स्पष्ट है जिसे नालछा कहते हैं। चित्तौड़ में 'पाक्षिकवृत्ति' की वि० सं० १३०६ (१२५२ ई० ) में प्रतिलिपि की गई, जो जैसलमेर में संग्रहीत है। इसमें बावक प्रतिक्रमणसूत्रचूणि ही सचित्र है।"
इसके चित्रों में मेवाड़ की प्राचीन परम्परा एवं बाद में आने वाली चित्रण विशेषताओं का उचित समावेश है | श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि ग्रन्थ में चित्र के दायें-बायें लिपि तथा मध्य भाग में चित्र बने हैं। इसकी पुष्पिका में आलेख चित्रों के साथ ही हैं। इस ग्रंथ में कुल ६ चित्र हैं, जो बोस्टन संग्रहालय अमेरिका में सुरक्षित है। इन चित्रों की विशेषताएं तत्कालीन चित्रण पद्धति तथा परम्परा के अनुसार है। नारी चित्रों एवं अलंकरण का इनमें आकर्षक संयोग है। उक्त शिलोत्कीर्ण एवं सचित्र ग्रन्थ में सवा चश्म चेहरे, गरुड़ नासिका, परवल वाली आंख, घुमावदार लम्बी उंगलियाँ, लाल-पीले रंग का प्राचुर्य, गुंडीदार जन समुदाय, चौकड़ीदार अलंकरण का बाहुल्य, चेहरों की जकड़न आदि महत्त्वपूर्ण है । इन चित्रों में रंग योजना भी चमकीली है। पीला, हरा व लाल रंग का मुख्य प्रयोग मिलता है। रंगों, रेखाओं व स्थान के उचित संयोजन का यह उत्कृष्ट नमूना है, जिसमें गतिपूर्ण रेखाओं व ज्यामितीय सरल रूपों का प्रयोग है। ये संस्कार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अवतरित होते रहे। साथ ही इन चित्रकारों ने सामाजिक तत्वों, रहन-सहन आदि का अच्छा अंकन किया है, जिस पर साराभाई नवाब ने लिखा है कि तेरहवीं सदी में मेवाड़ की स्त्रियाँ कैसा पहवाना पहनती थीं, यह इन चित्रों में अंकित है। इस पंक्ति से इस महत्त्वपूर्ण सचित्र ग्रंथ में सामाजिक वेषभूषा के अंकन की कार्यकुशलता भली भाँति सिद्ध हो जाती है ।
गंगरार ग्राम में मिले कुछ शिलोत्कीर्ण रेखाचित्र विक्रम संवत् (१३७५-१३७६) के हैं। इनमें दिगम्बर साधुओं की तीन आकृतियाँ हैं तथा उनके नीचे शिलालेख हैं । इन आकृतियों की अपनी निजी विशेषताएँ हैं। ये
१. संवत् १२८६ वर्षे श्री समधेस रदेव प्रणमते सुत्र ( ) आल पुत्र माउको न एता । संवत् १२८६ वर्षे श्रावण सु० रखो श्री समधेसुरदेव नृसव ( ? ) श्रीधर पुत्र जयतकः सदा प्रणमति ।
- शोध पत्रिका, वर्ष २५, अंक १, पृ० ५३-५४ ।
२. ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ० १६६-७० ।
३ संवत् १२१७ वर्षे माह गुदि १४ आदित्य दिने श्री मेदाघाट दुर्गे महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक उमापतिवर लब्धप्रौढ़ प्रताभूप- समलंकृत श्री तेजसिंहदेव कल्याण विजयराज्ये तत्पादपद्मनाभ जीविनि महामात्य श्री समुदधरे मुद्रा व्यापार परिपंथयति श्री मेदाघाट लेखि ।
वास्तव्य पं० रामचन्द्र शिष्येण कमलचन्द्रेण पुस्तिकाव्य - धावक प्रतिषमणसूत्रपूणि, बोस्टन संग्रहालय, अमेरिका
४. शोध पत्रिका, वर्ष ५, अंक ३, पृ० ४६
५.
शोध पत्रिका वर्ष २७, अंक ४, पृ० ४१-४२
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