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मेवाड़ का प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत साहित्य | २०१
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मेवाड़ के प्राकृत-साहित्य की समृद्धि में पद्मनन्दि (प्रथम) का भी योग है । इनकी तीनों रचनाएँ-'जंबूदीवपण्णत्ति', 'धम्मरसायण', एवं 'पंचसंग्रह' प्राकृत में है । इनके ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ये राजस्थान के प्रमुख कवि थे । 'जंबूदीवपण्णत्ति' नामक ग्रन्थ बारां नगर में लिखा गया था । अतः ये कोटा के समीपस्थ प्रदेश के निवासी थे। इनकी जंबूदीवपण्णत्ति में कुल २४२६ गाथाएँ हैं, जिनमें मनुष्य क्षेत्र, मध्यलोक, पाताल लोक और ऊर्ध्वलोक का विस्तार से वर्णन किया गया है । जैन भूगोल की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । 'धम्मरसायण' में कुल १६३ गाथाएँ हैं । इस ग्रन्थ में धर्म का स्वरूप एवं सांसारिक भोगों से विरक्त होने के लिए नैतिक नियमों का विवेचन है । 'पंचसंग्रहवृत्ति' कर्म- सिद्धान्त की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
१२वीं शताब्दी में राजस्थान में प्राकृत के कथाकार हुए हैं-लक्ष्मणगणि । इन्होंने वि० सं० ११६६ (ई० सं० १६४२) में माण्डलगढ़ में 'सुपासनाहचरिय' की रचना की थी। मेवाड़ में इनका विचरण होता रहता था। सुपार्श्वनाथचरित में इन्होंने तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का चरित लिखा है । इस पद्यात्मक ग्रन्थ में उपदेश की प्रधानता है । अनेक लोककथाओं के द्वारा नैतिक आदर्शों को समझाया गया है । यद्यपि यह ग्रन्थ प्राकृत में लिखा गया है, किन्तु बीच-बीच में । संस्कृत और अपभ्रंश का भी प्रयोग हुआ है । यथा
एह धम्मु परमात्थु कहिज्जइ । तं परपीडि होइ तं न हिज्जइ॥ कथाओं के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में कई सुभाषितों का भी संग्रह है। कवि ने कहा है कि संसार रूपी घर के प्रमादरूपी अग्नि से जलने पर मोह रूपी निद्रा में सोते हुए पुरुष को जो जगाता है वह मित्र है, और जो उसे जगाने से रोकता है वह अमित्र है
भवगिह मज्झम्मि पमायजलणजलयम्मि मोहनिहाए ।
जो जग्गवइ स मित्तं वारंता सो पुण अमित्तं ॥ मेवाड़ में खरतरगच्छ के आचार्यों का पर्याप्त प्रभाव रहा है। उन्होंने प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत आदि भाषाओं में अनेक रचनाएँ लिखी हैं। जिनवल्लभसूरि का कार्यक्षेत्र मेवाड़ प्रदेश था। इन्हें चित्तौड़ में सं० ११६७ में आचार्य पद मिला था। इनकी लगभग १७ रचनाएँ प्राकृत में लिखी गयीं हैं। उनमें 'द्वादश कुले', 'सूक्ष्मार्थविचारसार', .. 'पिंड विशुद्धि', 'तीर्थकर स्तुति' आदि प्रसिद्ध हैं। जिनवल्लभसूरि प्राकृत एवं संस्कृत के अधिकारी विद्वान् थे। उन्होंने 'भावारिवारणस्तोत्र' प्राकृत और संस्कृत में समश्लोकी लिखा है । इनके पट्टधर जिनदत्तसूरि राजस्थान के कल्पवृक्ष माने जाते हैं। इनकी १०-११ रचनाएँ प्राकृत में हैं। उनमें 'गणधरसार्धशतक' एवं 'सन्देहदोहावली' उल्लेखनीय है। जैन आचार्यों के जीवन-चरित्र की दृष्टि से ये ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। चित्तौड़ के प्राकृत कवियों में जिनहर्षगणि का भी प्रमुख स्थान है। इन्होंने 'रत्नशेखरीकथा' चित्तौड़ में प्राकृत में लिखी थी। इससे सिंहलद्वीप की राजकुमारी रत्नवती की कथा वणित है। इस सिंहल की पहचान डा० गौरीशंकर ओझा ने चित्तौड़ से करीब ४० मील पूर्व में 'सिंगोली' नामक स्थान से की है (ओझा निबन्ध संग्रह, भाग २, पृ० २८१)। अपभ्रंश-साहित्य
मेवाड़ में प्राकृत व संस्कृत की अपेक्षा अपभ्रंश के कवि कम हुए हैं । हरिषेण, धनपाल, जिनदत्त एवं विमलकीति मेवाड़ से सम्बन्धित अपभ्रंश के कवि हैं । यद्यपि मेवाड़ प्रदेश में अपभ्रंश की कई रचनाएँ सुरक्षित हैं, किन्तु उनमें रचना स्थल आदि का उल्लेख न होने से उन्हें मेवाड़ में रचित नहीं कहा जा सकता।
१. शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' भाग ३, पृ० ११०-१२१ । २. शास्त्री, हीरालाल, 'पंचसंग्रह', प्रस्तावना । ३. देसाई, 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास', पृ० २७५ । ४. 'मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि स्मृतिग्रन्थ', पृ० २० ५. नाहटा, 'दादा जिनदत्तसूरि'। ६. नाहटा, ‘राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा', पृ० ३२ ।