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tavarfer Filfout (Chambers of Commerce and Markets)
मूलाराधना में विविध भवन-प्रकारों में 'आगंतुकागार" का उल्लेख भी मिलता है। अपराजितसूरि ने उसका अर्थ आगन्तुकानां वेश्म तथा पं० आशाधर ने 'सार्थवाहादि गृहम्" किया है जो प्रसंगानुकूल होने से उचित ही है। इसका संकेत नहीं मिलता कि इन सार्थवाहगृहों अथवा व्यापारिक कोठियों की लम्बाई-चौड़ाई क्या होती थी तथा सार्थवाहों से उसके उपयोग करने के बदले में क्या शुल्क लिया जाता था। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ये सार्थवाह-गह चारों ओर से सुरक्षित अवश्य रहते होंगे तथा उनमें सर्वसुविधासम्पन्न आवासीय कक्षों के साथ-साथ व्यापारिक सामग्रियों को अल्प या दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिए भण्डारगृह (Godowns) की सुविधाएँ भी प्राप्त रहती होंगी। एक प्रकार से ये सार्थवाहगृह क्रय-विक्रय के केन्द्र तो रहते ही होंगे, साथ ही राज्य की औद्योगिक रीति-नीति के निर्धारक-केन्द्र भी माने जाते रहे होंगे । पाणिनि ने इन्हें 'भाण्डागार' कहा है। मार्ग-प्रणाली
मलाराधना में मार्ग-प्रकारों में जलमार्ग एवं स्थलमार्ग के उल्लेख भी मिलते हैं। जलमार्ग से नौकाओं द्वारा विदेश-व्यापार हेतु समुद्री यात्रा का उल्लेख मिलता है। इसके अनेक प्रमाण मिल चुके हैं कि प्राचीन भारतीय सार्थवाह दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, उत्तर-पश्चिम एशिया, योरुप तथा वर्तमान अफ्रिका के आस-पास के द्वीप-समूहों से सुपरिचित थे। प्रथम सदी के ग्रीक लेखक प्लीनी ने लिखा है कि "विदेश-व्यापार के कारण भारत को बहुत लाभ होता है और रोम-साम्राज्य का बहुत अधिक धन भारत चला जाता है।"५ स्थल मार्गों में किसी दीर्घ एवं विशाल राजमार्ग की चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु कुछ ग्रामीण, आटविक एवं पर्वतीय मार्गों के उल्लेख अवश्य मिलते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं
१. ऋजुवीथि-सरल मार्ग । २. गोमूत्रिक-गोमूत्र के समान टेढ़ा-मेढ़ा मार्ग। ३. पेलविय-बाँस एवं काष्ठ-निर्मित चतुष्कोण पेटी के आकार का मार्ग । ४. शंबूकावर्त-शंख के आवर्त के आकार का मार्ग ।
५. पतंगवीथिका-लक्ष्य-स्थल तक बना हुआ मार्ग । पेशे एवं पेशेवर जातियाँ
विभिन्न पेशों एवं पेशेवर जातियों के उल्लेखों की दृष्टि से मूलाराधना का विशेष महत्त्व है । ग्रन्थ-लेखन-काल तक भारत में कितने प्रकार के आजीविका के साधन थे और उन साधनों में लगे हुए लोग किस नाम से पुकारे जाते थे, ग्रन्थ से इसकी अच्छी जानकारी मिलती है। तत्कालीन सामाजिक दृष्टि से भी उसका विशेष महत्त्व है। महाजनपद युग विभिन्न पेशों अथवा शिल्पों का विकास-युग माना गया है, जिसकी स्पष्ट झलक मूलाराधना में मिलती है। उसमें ३७ प्रकार के पेशों एवं पेशेवर जातियों के उल्लेख मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं :(१) गंधव्व (गान्धर्व)
(६) जंत (तिल, इक्षुपीलनयन्त्र, यान्त्रिक) (२) णट्ट (नर्तक)
(७) अग्गिकम्भ (आतिशबाज) जट्ट (हस्तिपाल)
(८) फरुस (शांखिक, मणिकार आदि) (४) अस्स (अश्वपाल)
(8) णत्तिक (कौलिक, जुलाहा) (५) चक्क (कुम्भकार)
(१०) रजय (रजक)
१. दे० गाथा सं० २३१. २-३. दे. गाथा सं० २३१ को विजयोदया एवं मूला. टी.,पृ० ४५२. ४. दे. गाथा १६७३- "वाणियगा सागरजलम्भिणावाहिं रयणपुग्णाहिं ।
पत्तणमासण्णा विहू पमादमढ़ा वि वज्जति ।।। ५. दे० डॉ० रामजी उपाध्याय-भारतीय संस्कृति का उत्थान (इलाहाबाद, वि० सं० २०१८), पृ० २१२. ६. दे० गाथा २१८- "उज्जुबीहि गोमुत्तियं च पेलवियं ।
संबूकावटपि य पदंगवीधीय" | पृ० ४३३.
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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