________________
मूलाचार का अनुशीलन
७३
रचित आचारांग का ही संक्षेपीकरण है और इसीकी तरह आचाराङ्ग में भी ये ही बारह अधिकार थे जो मूलाचार में हैं । किन्तु इसकी पुष्टि का कोई साधन नहीं है । श्वेताम्बर सम्मत आचारांग में तो इस नाम के अधिकार नहीं है, हां, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत पिण्डैषणा अध्ययन है ।
किन्तु इतना निर्विवाद है कि दिगम्बर परम्परा में आचारांग का स्थानापन्न मूलाचार है । वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका के प्रारम्भ में द्वादशांग का विषय परिचय कराते हुए आचारांग में १८ हजार पदों के द्वारा मुनियों के इस प्रकार के चारित्र का कथन है ऐसा कहते हुए जो दो गाथा दी है (पु. १, पृ.९९) वे मूलाचार के दसवें अधिकार में वर्तमान हैं इससे आचाराङ्ग के रूप में इसकी मान्यता, प्रामाणिकता और प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता है ।
३. मूलाचार की प्राचीनता
धवला टीका के प्रारम्भ में आचारांग में वर्णित विषय का निर्देश करते हुए जो दो गाथाएं दी गई हैं उससे ज्ञात होता है कि वीरसेन स्वामी के सन्मुख मूलाचार वर्तमान था ।
किन्तु वीरसेन के पूर्वज आचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णति में तो स्पष्ट रूप से मूलाचार का उल्लेख है। तिलोयपण्णति के आठवें अधिकार में देवियों की आयु के विषय में मतभेद दिखाते हुए लिखा है ।
अर्थात् चार युगलों में इन्द्र देवियों की आयु क्रम से पांच, सतरह, पच्चीस और पैंतीस पल्य प्रमाण जानना चाहिये । इसके आगे आरण युगल तक पांच पल्य की वृद्धि होती गई है ऐसा मूलाचार में आचार्य स्पष्टता से निरूपण करते हैं ।
मूलाचार के बारहवें पर्याप्ति अधिकार में उक्त कथन उसी रूप में पाया जाता है । यथा
पलिदोवमाणि पंच य सत्तारस पंचवीस पणतीसं । चसु जुगले सु आऊ णादन्ना इंददेवीणं ॥ ५३१ ॥ आरण दुग परियंतं वढते पंचपल्लाई ।
मूलारे इरिया एवं णिउणं णि रूवेंति ॥ ५३२॥
१०
अर्थात् देवियों की आयु सौधर्म युगल में पांच पल्य, सानत्कुमार युगल में सतरह पल्य, ब्रह्मयुगल में पच्चीस पल्य, लान्तव युगल में पैंतीस पल्य, शुक्र महाशुक्र में चालीस पल्य, शतार सहस्रार में पैतालीस पल्य, आनत युगल में पचास पल्य और आरण युगल में पचपन पल्य है ।
पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं ।
चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्ण पण्णाओ ||८०||
Jain Education International
किन्तु मूलाचार में ही इससे पूर्व की गाथा में अन्य प्रकार से देवियों की आयु बताई है । यथा
पंचादी वेहि जुदा सत्तावीसा य पल्ल देवीणं । तत्तो सत्तुत्तरिया जावदु अरणप्पयं कप्पं ॥ ७९ ||
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org