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२६४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ समझनी चाहिए जो मानव के व्यक्तित्व और जीवन के लिए साक्षात् उपयोगी होते हुए उसे समृद्ध बनाने वाली है ।... 'मोक्ष-धर्म अथवा पूर्णत्व की खोज भी संस्कृति का अंग मानी जाएगी। हिन्दू तथा भारतीय संस्कृति का सबसे उदात्त रूप संस्कृत महाकाव्यों तथा बौद्धधर्म की शिक्षाओं में प्रतिफलित हुआ है। जैन संस्कृति की गरिमा एवं उपलब्धियाँ
___ संस्कृति एवं धर्म इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि हम धर्म का व्यापक अर्थ लें तो संस्कृति किसी न किसी रूप में इसमें समाहित हो जाती है। दूसरे रूप में संस्कृति संस्कारों से संबंधित है। ये संस्कार धर्म निबद्ध होने से संस्कृति के अभिन्न अंग भी माने जाते हैं । इस प्रकार ये दोनों (संस्कृति और धर्म) एक-दूसरे में इस भांति गुंथे हुए हैं कि इन्हें पृथक् करना सहज नहीं है। यह भी एक विचारधारा प्रवाहित है कि प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति धर्ममूलक होती है तथा धार्मिकता ही सांस्कृतिक चेतना को स्थायित्व प्रदान करती है।
- स्वामी श्री करपात्री जी 'संस्कृति-विमर्श' शीर्षक निबन्ध में धर्म और संस्कृति में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि धर्म और संस्कृति में इतना भेद है। धर्म केवल शास्त्रोक्त समाधिगम्य है और संस्कृति में शास्त्र से अविरुद्ध लौकिक धर्म भी परिणत हो सकता है। युद्ध-भोजनादि में लौकिकता अलौकिकता दोनों ही हैं। जितना अंश लोकप्रसिद्ध है, उतना लौकिक है जितना शास्त्रोक्त समाधिगम्य है उतना अलौकिक । अलौकिक अंश धर्म है । संस्कृति में दोनों का अन्तर्भाव है ।२
जैन संस्कृति पूर्णरूपेण आध्यात्मिक है । सांसारिक अभिवृद्धि नगण्य है। मानवजीवन की सफलता का चरमबिन्दु मोक्ष है; अतः इसकी उपलब्धि के लिए बाह्याडम्बर निरन्तर त्याज्य बताये गये हैं।
जैन संस्कृति सरोज की पांच पांखुड़ियां हैं
(१) अहिंसा (२) मानव का अनन्य महत्त्व (३) बाहर नहीं अन्दर की ओर (४) कर्मवाद (५) अपरिग्रहवाद ।'
___ इन पाँचों पाँखुड़ियों का स्वरूप एक शब्द विश्व कल्याण में सन्निहित है अथवा अहिंसा में ये पाँच अनुस्यूत हैं।
यहां पर विशेषत: उल्लेख्य है कि जैन संस्कृति जन्म से जाति-व्यवस्था की विरोधी है तथा कर्म को ही प्राधान्य दिया गया है, जैसा कि
मनुष्य ब्राह्मण के योग्य कर्म करने से ही ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय के कर्म से
१ हिन्दी साहित्य कोष, मा० १, पृष्ठ ८६८ २ कल्याण हिन्दू संस्कृति अंक, पृष्ठ ३६
३ मरुधर केशरी अभिनन्दन ग्रन्थ, ततीय खण्ड, पृष्ठ ६ Jain Education International
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