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________________ मालव-संस्कृति को जैनधर्म की देन २३७ के मन्दिर में चन्द्रगुप्त को चमत्कृत कर, जैनधर्म में दीक्षित कर लिया था। इसी समय दिगम्बर जैन मुनियों का संघ भद्दलपुर (बीसनगर) से उज्जैन में स्थानान्तरित हुआ था।' पश्चात् उज्जैन दिगम्बर जैन भट्टारकों की केन्द्रीय नगरी भी बनी और यहाँ पच्चीस जैन दिगम्बराचार्य चार सौ उन्तीस वर्ष की अवधि में प्रख्यात हुए। परमार वंशीय राजाओं द्वारा जैनाचार्यों का सम्मान-परमारवंशीय राजाओं की राजधानी धारा नगरी (धार) थी परन्तु राजा भोज ने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था। इस वंश के कई राजा विद्या, कला और साहित्य के ज्ञाता और रसिक थे। उन्होंने अनेकों जैनाचार्यों को राजकीय सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान की थी। मुंज के समान भोज ने भी जैनधर्म और आचार्यों को सर्वाधिक सम्मान दिया। श्री प्रभाचन्द्राचार्य को विशेष रूप से सम्मानित किया। दिगम्बराचार्य श्री शान्तिसेन ने भोज के दरबार में कई विद्वानों एवं पण्डितों को वाद-विवाद में पराजित किया था। एक अन्य आचार्य विशालकीर्ति के शिष्य मदनकीर्ति ने उज्जयिनी में अन्य वादियों को परास्त कर 'महा प्रामाणिक' की पदवी प्राप्त की थी। इस प्रकार मध्ययुग तक जैनधर्म का प्राबल्य मालवा में और विशेषकर उज्जयिनी में रहा । उज्जैन नगर की प्राचीन वैभवसम्पन्नता कालचक्र के थपेड़ों और मध्यकाल से अंग्रेजी शासन तक के राजनैतिक परिवर्तनों की चपेट में आज धूलि-धूसरित भले ही होगई हो, परन्तु इसके भग्नावशेषों से आज भी इसके गौरवशाली अतीत की वे गाथाएँ, जिनमें इसके उत्तुंग राजप्रासाद, विशाल-पथ, रम्य और सुन्दर जिन मन्दिर, आकर्षक उद्यान, विश्व का व्यापारिक केन्द्र, अपार धन-सम्पदा, स्वर्ग की परी के समान शस्य-श्यामला-घरा, मरकत मणियों से जड़े नगर पथ, चन्द्रकान्त मणियों से आभासित आवास, रत्नजड़ित क्यारियों से बहने वाली सुरभित सुमनों की मदमस्त सौरभ, पर सुखापेक्षी नगरवासी, सुशील व पतिभक्ता रमणियां, ऐसी-नयनप्रिय नगरी, जो सूर्य रश्मियों को भी लज्जित करदे-अनुगुंजित हो रही है। उज्जयिनी का प्राचीन १ संक्षिप्त जैन इतिहास (सूरत) तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार-भूमिका ---जीवन चरित्र (पृष्ठ १३३।१४१) २ जैन हितैषी, भाग ६, अंक ७-८, पृष्ठ २८-३१ ३ राजा मुंज ने धनपाल, पद्यगुप्त व धनञ्जय जैसे विद्वानों को दरबार में सम्मानित किया। जैनाचार्य महासेन उनका स्नेह और आदर पा चुके थे। धनपाल के भाई शोभन भी जैनधर्म में दीक्षित हुए, परन्तु धनपाल उज्जैन में जैनधर्म का गहन प्रभाव देखकर धारा चले गये। शोभन फिर भी पूर्णरूपेण प्रभावित रहे। आचार्य अमितगति इस समय के प्रख्यात जैन यतियों में से एक थे।। ४ भारत के प्राचीन राजवंश, मध्यप्रान्तीय जैन स्मारक, हिन्दी विश्वकोष और विद्वदरत्नमाला, चतुर्विंशति प्रबन्ध, जैन हितैषी, देखिये । ५ हरिषेण कथाकोष (कथा क्रमांक ३), महाकवि पुष्पदन्त कृत 'यशोधर चरित्र', कनकामरकृत 'करकण्डुचरिउ', आदि में उज्जयिनी का विशद वर्णन है। लष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211723
Book TitleMalav Sanskruti ko Jain Dharm ki Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasantilal Bang
PublisherZ_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Publication Year
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size667 KB
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