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रविषेणकृत पदमचरित पर टिप्पण बि. स. १०८७ में एवं पुराण सार वि. सं. १०८० में लिखा 131 प्रभाषचन्द्र ने आराधना गद्य कथा कोश की रचना की । इसमें चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त समन्तभन्द्र
और अकलंक के चरित्र भी वणित हैं । अपभ्रंश भाषा के एक कवि "वीर" की वरांगचरित "शांतिनाथ चरित", "सुद्धयवीर" अम्बादेवीरास और जम्बसामिचरिउ का पता चलता है किन्तु इनकी प्रथम चार रचनाओं में से एक भी आज उपलब्ध नहीं है । पांचवीं कृति "जम्बूसामिचरिउ' ग्रन्थ की अंतिम प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. १०७६ में माह माघ की शक्ल दसमी को लिखी गई। कवि ने ११ संधियों में जम्बस्वामी का चरित्र चित्रण किया है। वीर के जम्बसामिचरिउ में ११ वी सदी के मालवा का लोक जीवन सुरक्षित है। वीर के साहित्य का महत्व "मालवा" की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक और लोक संस्कृति की दृष्टि से तो है ही, परन्तु सर्वाधिक महत्व "मालवी भाषा" की दृष्टि से है। मालवी शब्दावली का विकास "वीर" की भाषा में खोजा जा सकता है। 6 नयनंदीकृत "संकल विधि विधान कहा" वि.सं. ११०० में लिखा गया । यद्यपि यह खंड काव्य के रूप में है किन्तु विशाल काव्य में रखा जा सकता है। इसकी प्रशस्ति में इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्र प्रस्तुत की गई है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने के प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख करते हुए अपने पूर्ववर्ती जैन, जनेतर और कुछ समसामयिक विद्वानों का भी उल्लेख किया है। कवि दामोदर ने राजा देवपाल के राज्य में नागदेव के अनुरोध पर नेमिजिन चरित्र बनाया था । पं. आशाधर ने अमरकोश की टीका भी लिखी है। और परमार राजा देवपाल के राज्यकाल में पं. आशाधर ने सं.१२९२ में त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की रचना की।10 जिसमें ६३ शलाका पुरुषों का चरित्र अपेक्षाकृत संक्षेप में वर्णन किया गया है जिसमें प्रधानतः जिनसेन व गुणभद्रकृत महापुराण का अनुसरण पाया जाता है।। ३. काव्य ___मालवा के जैन विद्वानों में अनेक बड़े कवि हो चुके हैं । कुछ काव्यग्रन्थों का, जो चरित्र एवं ऐतिहासिक श्रेणी में आते हैं, उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। कुछ ग्रन्थ जिनका उल्लेख महाकाव्यों या लघुकाव्यों की श्रेणी में आता है वह इस प्रकार है :
नयनंदी कृत "सुदर्शनचरित्र" अपभ्रंश का खण्ड काव्य है जिसकी रचना वि.सं. ११०० में हई 142 यह ग्रन्थ महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है । पं. आशाधर कृत अनेक काव्य ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। इनकी रचना "भारतेश्वराभ्युदय" में भरत के ऐश्वर्य का वर्णन है। इसे सिद्धचक्र भी कहते हैं। क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के अंत में सिद्ध पद आया है । 3 राजमती विप्रलम्भ खण्ड काव्य है। जिस पर लेखक की स्वयं की "स्वोपत्रकल्प" जिसका कि दूसरा नाम 'प्रतिष्ठासारोद्धार" था धर्मामृत का एक अंग है वह भी पं. आशाधर की ही रचना है।" इसके अतिरिक्त और कोई काव्य ग्रन्थों की जानकारी हमें नहीं मिलती, जो महाकाव्य मिले हैं वे हमारी समय सीमा के पर्याप्त बाद के हैं जिनका उल्लेख करना उचित नहीं प्रतीत होता ।
४. स्तोत्र साहित्य
स्तोत्रों में सबसे प्राचीन स्तोत्र सिद्धसेन दिवाकर के हैं । सिद्धसेन दिवाकर के दो स्तोत्र (१) कल्याण मंदिर स्तोत्र तथा (२) वर्द्धमान द्वात्रिशिका स्तोत्र उपलब्ध है। इनका कल्याण मंदिर स्तोत्र ४४ श्लोकों में है। यह पार्श्वनाथ भगवान का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रासाद गुण कम है और कृत्रिमता एवं श्लेष की भरमार है । परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है। किंवदन्ती है कि कल्याण मंदिर स्तोत्र का पाठ समाप्त होते ही उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में शिवलिंग फट गया और उसके मध्य में पार्श्वनाथ की मूर्ति निकल आई। इसके अंतिम भिन्न छंद के एक पद्य में इसके कर्ता का नाम कुमदचन्द्र सूचित किया गया है जिसे कुछ लोग सिद्धसेन का ही दूसरा मानते हैं दूसरे पद्य के अनुसार यह २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है। भक्तामर के सदृश्य होते हुए भी यह अपनी काव्य कल्पनाओं व शब्द योजना में मौलिक ही है-हे जिनेन्द्र! आप उन भक्तों को संसार से कैसे पार कर लेते हैं जो अपने हृदय में आपका नाम धारण करते हैं ? हां, जाना, जो एक मशक भी जल में तैरकर निकल जाती है वह उसके भीतर भरे हए पवन का ही तो प्रभाव है। हे जिनेश, आपके ध्यान से भव्य पुरुष क्षणमात्र में देह को छोड़कर परमात्मदशा को प्राप्त हो जाते हैं, क्यों न हों, तीव अग्नि के प्रभाव से नाना धातुएं अपने पाषाण भाव को छोड़कर शुद्ध सुवर्णत्व को प्राप्त कर लेती हैं। सिद्धमेन दिवाकर कृत "वर्द्धमान द्वाविशिका" दूसरा स्तोत्र है । यह ३२ श्लोकों में भगवान महावीर की स्तुति है । इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। प्रसादगुण अधिक है । भगवान महावीर को शिव, बद्ध, हृषिकेश, विष्णु एवं जगन्नाथ मानकर प्रार्थना की गई है। इन दोनों स्तोत्रों में सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला ऊंची श्रेणी की है।
मानतुगाचार्य कृत "भक्त्तामर स्तोत्र" को प्रारंभ करने की शैली पुष्पदंत के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्रायः मिलती है। प्रतिहार्य एवं वैभव वर्णन में भक्तामर पर पात्र केसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समावृत है । कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही है, जिससे इसके प्रत्येक अंतिम चरण को लेकर समस्या पूात्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे हैं । भक्तामर बहुत ही लोकप्रिय और सुप्रचलित एवं प्रायः प्रत्येक जैन के जिह्वाग्र पर है। दिगम्बर परम्परानसार इसमें ४८ तथा श्वेताम्बर में ४४ पद्य हैं। स्तोत्र की रचना सिंहोन्नता वसन्ततिलका छन्द में हुई है। इसमें स्वयंकर्ता के अनुसार प्रथम जिनेन्द्र अर्थात् ऋषभनाथ की स्तुति की गई है । तथापि समस्त रचना ऐसी है कि वह किसी भी तीर्थर के लिये सार्थक हो सकती है। प्रत्येक पद्य में बड़े मुन्दर उपमा, रूपक आदि अलंकारों का समावेश है-"हे भगवन ! आप अद्भुत जगत प्रकाशी दीपक हैं, जिसमें न तेल है न बाती और न धूम्र; जहां पर्वतों को हिला देने वाले वा झोके भी पहुंच नहीं सकते तथापि जिससे जगत भर में प्रकाश फैलता है। हे मुनीन्द्र, आपकी महिमा सूर्य से भी बढ़कर है, क्योंकि आप न कभी अस्त होते हैं, न राहुगम्य हैं न आपका महान प्रभाव मेघों में निरुद्ध होता है।
वी.नि. सं. २५०३
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