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नय चेतना को लेकर आए। जैन धर्म की सांस्कृतिक देन के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. राधाकमल मुखर्जी लिखते हैं-१३ "भारतीय सभ्यता को जैनधर्म की सर्वोच्च मूल्य की देनें हैं- प्रत्येक जीवधारी के प्रति उदारता और तपस्या, वस्त्रत्याग तथा उपवासादि के प्रति विश्वजनीन भावना; यह बात केवल साधुओं ने ही नहीं, श्राविकाओं ने ही नहीं, किन्तु जन-सामान्य ने भी स्वीकार की।
सुप्रसिद्ध काव्यग्रन्थ 'तिरुक्कुरल' के ३३वें परिच्छेद में अहिंसा के विषय में ये मर्मस्पर्शी वचन कहे गये हैं- १४
सब धर्मों में श्रेष्ठ है, परम अहिंसा धर्म। हिंसा के पीछे लगे, पाप भरे सब कर्म ॥9॥
जिनकी निर्भर जीविका, हत्या पर ही एक मृत भोजी उनको विबुध, माने हो सविवेक ॥९ ॥
जैन परम्परा ने अहिंसा का वास्तव में सम्पूर्ण विश्व को अनोखा वरदान ही दिया है। इतनी गहरी, बहुमुख, सूक्ष्म, व्यावहारिक एवं निश्चयात्मक दृष्टि अन्यत्र दुर्लभ है। जैन-अहिंसा के आध्यात्मिक पक्ष के साथ उसके व्यावहारिक और आचारमूलक पक्ष के अन्तर्गत रात्रि भोजन परित्याग, मांसाहार त्याग एवं गालित जल-पान की विशेष चर्चा है।
अहिंसा के व्यापकतम प्रभाव के विषय में आचारांग में अत्यन्त्र प्रभावकारी विवेचन है-१५
"अत्थि सत्थं परेण परं नत्थि असत्थं परेण परं।"
अर्थात् शास्त्र एक से बढ़कर एक हैं। अशस्त्र अहिंसा से बढ़कर कोई शस्त्र नहीं। इसका अचूक प्रभाव होता है।
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अनेकान्त-अनेकान्त जैनदर्शन का एक प्रतिनिधि पारिभाषिक शब्द है। इसके साथ स्याद्वाद एवं सप्तभंगी शब्द भी जुड़े हैं। इन तीन शब्दों को सही सन्दर्भ में समझकर ही जैन दर्शन को समझा जा सकता है। अनेकान्त शब्द के द्वारा प्रत्येक वस्तु में सापेक्षिक रूप से विद्यमान अनेक अवस्थाओं या सम्बन्धों को समझा जाता है। अनेक (एक से अधिक), अन्त अर्थात् धर्म (अवस्थाएँ), यही इस शब्द का अर्थ है वस्तु में स्थित सापेक्षिक अवस्थाओं को एक साथ समझकर ध्यान में तो रखा जा सकता है, परन्तु बोलते समय तो एक क्रम अपनाना ही होगा। यही क्रम (विवेचन क्रम) स्याद्वाद शब्द द्वारा स्पष्ट होता है। किसी वस्तु के एक पक्ष को ही एक बार में कहा जाता है। वस्तु-विवेचन के कुल सात भंग (प्रकार) सप्तभंगी शब्द द्वारा द्योतित होते हैं।
वस्तु को व्यवहार की दृष्टि से अनेक सापेक्ष रूपों में देखा जाता है जबकि निश्चयनय (तात्त्विक धरातल पर) अभेदात्मक एक रूप में ही समझा जाता है। अनेकान्त दर्शन में अपनी वैचारिकता के साथ दूसरे व्यक्ति की वैचारिकता को भी सहृदयता और ईमानदारी से समझा जाता है। आज विश्व के अनेक राष्ट्रों में
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
धन-धान्य एवं वैभव का संघर्ष कम है, परन्तु विचारधाराओं की विपरीतता और दुराग्रहशीलता का संघर्ष सर्वाधिक है। रूस और अमेरिका, इंगलेण्ड और दक्षिण अफ्रीका, ईरान और ईराक, तमिल-लंका, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान आदि देशों के संघर्ष में वैचारिक अहंकार की मात्रा सर्वाधिक है। शारीरिक हिंसा की अप्रेक्षा वैचारिक हिंसा (दूसरों के विचारों का दमन) अधिक घातक है। अतः अनेकान्त दर्शन में परमत सहिष्णुता और सद्भावना को बहुत महत्त्व दिया गया है।
सैद्धान्तिक कट्टरता (Dogmatism) की दुराग्रहशीलता का जैन- विचार धारा ने सदा विरोध किया है। वैचारिक स्वातन्त्र्य होने पर ही वैचारिक पूर्णता आ सकती है। वैदिक एवं औपनिषदिक वैचारिकता में स्पष्ट टकराहट है। कर्मकाण्ड का गीता में भी विरोध परिलक्षित होता है। पश्चिम में और विशेष रूप से ग्रीस में तो सुकरात जैसे स्वतन्त्र और निर्भीक विचारकों की आज भी विश्व पर छाप है। सुकरात के मृत्यु का वरण किया, किन्तु अपने विचार नहीं बदले। उसने कहा, १६
"There are many ways of avoiding death in every danger if a man is not ashamed to say and to do anything. But, my friends, I think it is a much harder thing to escape from wickedness than from death, for wickedness is swifter than death."
अर्थात् मनुष्य यदि इतना बेशर्म हो जाए कि वह मृत्यु से बचने के लिए कुछ भी बोलने और करने के लिए तैयार है, तो मृत्यु को टाला जा सकता है परन्तु मित्रो, दुष्टता की अपेक्षा मृत्यु से बच निकलना सरल है, क्योंकि दुष्टता की चाल मृत्यु से अधिक तेज होती है।
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सुकरात ने अपने हत्यारों से मरने के पहले कहा, १७
"It is much better, and much easier, not to silence reproaches, but to make yourselves as perfect as you can. This is my parting prophecy to those who have condemned me."
अर्थात् अपने विरोध को दमित न करना अधिक सरल और श्रेयस्कर होगा, बल्कि खुद को अधिकाधिक निर्दोष एवं पूर्ण बनाना चाहिए। यह मेरी मृत्यु के पूर्व की भविष्यवाणी उन लोगों के प्रति है जिन्होंने मुझे दोषी ठहराया है।
सुकरात का समय आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का है। उस समय कितनी वैचारिक असहिष्णुता थी। दमन से सत्य दबाया तो जा सकता है, समाप्त नहीं किया जा सकता। जैनदर्शन व्यक्तिमात्र की उचित वैचारिकता का स्वागत करता है। वह समन्यववादी है।
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