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माध्यमिक शिक्षा और सरकारी दृष्टि
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भारत ग्रामों का देश है. अतः आवश्यकता है प्राथमिक शिक्षा के ग्रामीण वातावरण के अनुकूल होने की। लेकिन मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करने वाली प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण बालकों को उनके कृषि सम्बन्धी कार्यों के लिए व्यावहारिक ज्ञान प्रदान नहीं करती। छुट्टियों की व्यवस्था भी ऐसी है कि वे खेती में कोई सहयोग नहीं कर पाते । गाँवों के अधिकांश बच्चे अपने माता-पिता के साथ खेतों पर कार्य करते हैं और इसी लालच से उन बच्चों को स्कूल नहीं भेजा जाता। यदि सत्रीय व्यवस्था इस प्रकार हो कि उन्हें छुट्टियाँ उसी समय में हों, जबकि खेतों में उनके सहयोग की आवश्यकता है तो अपेक्षाकृत अधिक बालकों को स्कूल तक लाने में सुविधा रहेगी। सन् १९७६ तक प्राथमिक शिक्षा पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में रहने के कारण भी उपेक्षित बनी रही।।
__ जहाँ तक माध्यमिक शिक्षा का प्रश्न है वहाँ भी हमारी शिक्षा-व्यवस्था का ढाँचा सम्पूर्ण देश में कभी भी एक समान नहीं रहा, जिसके कारण छात्रों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सरकारी नौकरियों में आये दिन स्थानान्तरण होते रहते हैं और स्थानान्तरण के कारण यदि कोई छात्र अपने माता-पिता के साथ एक राज्य से दूसरे राज्य में चला जाता है, तो कई बार उसका पूरा एक सत्र व्यर्थ ही चला जाता है।
संविधान में सरकार के कार्यों का विभाजन तीन सूचियों में किया गया है। केन्द्रीय सरकार द्वारा किए जाने वाले कार्य केन्द्रीय सूची में, राज्य सूची में राज्यों द्वारा किये जाने वाले कार्यों का विवरण है तथा समवर्ती सूची में वे विषय रखे गये हैं, जिन्हें केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर करते हैं। इन विषयों पर केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को सलाह तो दे सकती है लेकिन उसे मानना न मानना राज्य सरकारों की इच्छा पर निर्भर करता है।
केन्द्र शासित प्रदेशों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों के शिक्षा सम्बन्धी कार्य सन् १९७६ तक राज्य सूची के अन्तर्गत थे । इसलिए केन्द्र सरकार सदैव शिक्षा के प्रति उदासीन दृष्टिकोण अपनाती रही। शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए समय-समय पर केन्द्र सरकार द्वारा अनेक आयोग स्थापित किए गए और उन आयोगों ने अध्ययन के पश्चात् अनेक सुझाव भी दिए, लेकिन शिक्षा राज्यों का विषय होने के कारण केन्द्र सरकार उन सुझावों को लागू करने के लिए राज्यों को बाध्य नहीं कर सकी।
__सन् १९५२ में डा० ए० लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में मुदालियर आयोग का गठन शिक्षा में सुधार हेतु आवश्यक सुझाव देने के लिए किया गया । अपने अध्ययन के पश्चात् इस आयोग ने सन् १९५३ में एक रिपोर्ट पेश की और हाई स्कूल के स्थान पर उच्चतर माध्यमिक स्कूलों की स्थापना का सुझाव दिया तथा ८+३ +३ की शिक्षा-पद्धति का परामर्श दिया, लेकिन इस आयोग के सुझावों को भी सभी राज्यों ने स्वीकार नहीं किया। आज भी कई राज्यों में वही प्राचीन इण्टर पद्धति प्रचलित है। आयोग ने बहु उद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना का भी सुझाव दिया तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि को शिक्षा के साथ जोड़ने की बात कही। लेकिन इस आयोग के सुझावों को जहाँ लागू किया गया वहाँ भी माध्यमिक शिक्षा में कोई सुधार नहीं हो पाया।
सन् १९६४ में डा० डी० एस० कोठारी की अध्यक्षता में कोठारी कमीशन का गठन माध्यमिक शिक्षा में सुधार की दृष्टि से किया गया। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सन् १९६६ में दी, जिसमें १०+२+३ की शिक्षा व्यवस्था का प्रावधान रखा गया। जिसमें कक्षा १० तक प्रत्येक छात्र सामान्य रूप से सभी विषयों का अध्ययन करेगा और + २ में उसे व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जायेगी। १०+२ अर्थात् हायर सैकण्डरी पास करने के बाद केवल योग्य छात्रों के ही विश्वविद्यालयी शिक्षा में प्रवेश का प्रावधान इस नीति में रखा गया । इस शिक्षा व्यवस्था का यह उद्देश्य रखा गया कि १०+२ तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद प्रत्येक छात्र स्वतन्त्र रूप से आजीविका कमाने के योग्य हो सके । लेकिन शिक्षा राज्य-सूची में होने के कारण इस आयोग के सुझावों का भी वही हाल हुआ जो पहले होता रहा, अर्थात् इसे केवल कुछ ही राज्यों द्वारा स्वीकार किया गया और जहाँ यह व्यवस्था लागू हुई वहाँ भी इसे सफलता प्राप्त नहीं हुई।
सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि स्वयं सरकार भी शिक्षा से सम्बन्धित नीति के बारे में एकमत नहीं है।
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