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माण्डू के जावड़ शाह
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असुविधा हो, जावड़ ने उबालकर कृमिरहित किये गये जल का प्रयोग करने, थोड़े-से वस्त्रों को रंगाने, जुआ न खेलने, कोतवाल, जेल-निरीक्षक, आदि पद स्वीकार न करने की प्रतिज्ञा की।
द्वादश श्रावक-व्रतों में से अन्तिम चार (६-१२) शिक्षाव्रत कहलाते हैं। नवाँ व्रत निश्चित समय पर परम्परागत सामायिक, धार्मिक अनुष्ठान करने का आदेश देता है। दसवाँ व्रत, पहले व्रतों के अन्तर्गत सामान्यत: वर्णित कार्यकलापों को और सीमित करता है। ग्यारहवें के अनुसार पौषध अनिवार्य है। बारहवाँ व्रत निश्चित समय पर निश्चित धन खर्च करके दान-कार्य, आतिथ्य तथा धार्मिक अनुष्ठानों को करने का आदेश देता है।
जावड़ ने जिन प्रतिबन्धों को स्वयं स्वीकृत किया था तथा जो प्रतिज्ञाएँ कीं, उनका सूक्ष्म वर्णन उसके जीवनीकार ने किया है । वह इस आदर्श श्रावक का चित्र संसार के समक्ष प्रस्तुत करने को उत्सुक था, जो अपने सम्प्रदाय के अनुयायियों में श्रेष्ठ था तथा जिसके धर्म ने उसे इस आत्म-संयम के पालन के लिए प्रेरित किया था।
जावड़ ने अपने प्रणों, विशेषतः बारहवें व्रत के अन्तर्गत किये गये प्रणों, का निष्ठापूर्वक पालन किया। इसका अनुमान उसके द्वारा प्रत्येक उपयुक्त अवसर पर दिये गये दान, उसके जीवनीकार की इस दृढ़ उक्ति से कि 'उसने समूची पृथ्वी को सत्रागार बना दिया', जलचरों की रक्षा के लिए माण्डू की समस्त नदियों, झीलों तथा कुपों को वस्त्र से बुद्धिपूर्वक ढकवाने के वर्णन तथा उसके द्वारा करायी गयी जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा से सहज ही किया जा सकता है।
मूर्ति-प्रतिष्ठा—जावड़ ने इन प्रतिमाओं की स्थापना एक शानदार सामूहिक आयोजन में, संवत् १५४७ में, माण्डू में करायी थी और इनका अभिषेक उसके गुरु आचार्य सुमितसाधु ने किया था। वे संख्या में १०४ थीं-अतीत के चौबीस तीर्थंकरों की एक-एक, भविष्य के चौबीस तीर्थ करों की एक-एक, वर्तमान चौबीस तीर्थ करों की एक-एक उक्त प्रति चौबीस तीर्थंकरों के तीन सामूहिक मूर्तिपट्ट, बीस विहरमाण का एक सामूहिक मूर्तिपट्ट तथा ६ पंचतीथियाँ । तेईस सेर की एक चाँदी की मूर्ति तथा ग्यारह सेर की एक स्वर्णप्रतिमा को छोड़कर शेष सभी मूर्तियाँ पीतल की बनी हुई थीं। उन्हें हीरक-खचित छत्रों तथा बहुमूल्य आभूषणों से सजाया गया था। यहाँ तक कि क्षेमराज ने पूर्वोक्त चैत्यप्रवाड़ी में जावड़ की चाँदी, सोने तथा मणियों की जिन-प्रतिमाओं की प्रशंसा करते हुए कहा है कि वे यात्रियों के देखने योग्य "अभिराम वस्तुएँ" हैं। कल्पसूत्रप्रशस्ति में भी जावड़ के वर्णन के प्रसंग में उनका विशेष उल्लेख किया गया है। मूति-स्थापना के उपलक्ष में आयोजित उत्सवों, जावड़ द्वारा दिये गये उपहारों, उसके द्वारा भेटी गयी शानदार सामग्री तथा भारत के कोने-कोने से आये संघों का सूक्ष्म वर्णन सुमितसम्भव के २३ पद्यों में सम्भवतः यह दिखाने के लिए कि ऐसे महत्त्वपूर्ण उत्सव का आयोजन किस आदर्श रूप में किया जाना चाहिए, किया गया है। विबुधविमलशिष्य के १७ पद्यों में भी इस घटना का वर्णन है। उसमें अतिथियों को दी गयी भोजनसामग्री तक का वर्णन किया गया है। उसके अनुसार प्रतिष्ठा-समारोह पर जावड़ के पन्द्रह लाख रुपये खर्च हुए थे।
मन्दिर-जावड़ के इस असीम औदार्य के कारण उसके आधुनिक प्रशंसकों का कथन है कि उसने माण्डू में ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर, इन पाँच तीर्थंकरों के विशाल मन्दिरों का भी निर्माण किया
१. विश्वम्भरा"...."श्रीजावडेन....."सत्रगारमिव व्यधाप्यत। -आनन्दसुन्दर, पृ० २४. २. सुमतिसम्भव, ८. ३-७. ३. २२ सेर नहीं, जैसा लेखक एक दूसरे का अन्धानुकरण करते हुए कहते चले आये हैं । देखिये, सुमतिसम्भव, ८६
रौप्यो त्रयोविंशतिसेरिकका। ४. हैमी च सैकादशसेरसत्का। -सुमितसम्भव, ८६ ५. रूप्यस्वर्णमषीमयानि भगवबिम्बानि योऽकारयत् । ----कल्पप्रशस्ति , ४४
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