SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीरकी निर्ग्रन्थ-दीक्षा राजकुमार महावीर सब तरह के सुखों और राज्यका त्यागकर निर्ग्रन्थ-अचेल हो वन-वनमें, पहाड़ोंकी गुफाओं और वृक्षोंकी कोटरोंमें समाधि लगाकर अहिंसाकी साधना करने लगे। काम-क्रोध, राग-द्वेष, मोह-माया, छल-ईर्ष्या आदि आत्माके अन्तरंग शत्रुओंपर विजय पाने लगे। वे जो कायक्लेशादि बाह्य तप तपते थे वह अन्तरंगकी ज्ञानादि शक्तियोंको विकसित व पुष्ट करनेके लिए करते थे । उनपर जो विघ्नबाधाएँ और उपसर्ग आते थे उन्हें वे वीरताके साथ सहते थे। इस प्रकार लगातार बारह वर्ष तक मौनपूर्वक तपश्चरण करनेके पश्चात् उन्होंने कर्मकलंकको नाशकर अर्हत अर्थात् 'जीवन्मुक्त' अवस्था प्राप्त की। आत्माके विकासकी सबसे ऊँची अवस्था संसार दशामें यही 'अर्हत अवस्था' है जो लोकपूज्य और लोकके लिए स्पृहणीय है। बौद्धग्रन्थों में इसीको ‘अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध' कहा है । उनका उपदेश इस प्रकार महावीरने अपने उद्देश्यानुसार आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा कर ली, समस्त जीवों पर उनका समभाव हो गया--उनकी दृष्टि में न कोई शत्रु रहा और न कोई मित्र । सर्प-नेवला, सिंह-गाय जैसे जाति-विरोधी जीव भी उनके सान्निध्यमें आकर अपने वैर-विरोधको भूल गये। वातावरणमें अपूर्व शान्ति आ गई । महावीरके इस स्वाभाविक आत्मिक प्रभावसे आकृष्ट होकर लोग स्वयमेव उनके पास आने लगे । महावीरने उचित अवसर और समय देखकर लोगोंको अहिंसाका उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। 'अहिंसा परमो धर्मः' कह कर अहिंसाको परमधर्म और हिंसाको अधर्म बतलाया। यज्ञोंमें होनेवाली पशुवलिको अधर्म कहा और उसका अनुभव तथा युक्तियों द्वारा तीव्र विरोध किया। जगह-जगह जाकर विशाल सभाएँ करके उसकी बुराइयाँ बतलाईं और अहिंसाके अपरिमित लाभ बतलाये । इस तरह लगातार तीस वर्ष तक उन्होंने अहिंसाका प्रभावशाली प्रचार किया, जिसका यज्ञोंकी हिंसापर इतना प्रभाव पड़ा कि पशु-यज्ञके स्थानपर शान्तियज्ञ, ब्रह्मयज्ञ आदि अहिंसक यज्ञोंका प्रतिपादन होने लगा और यज्ञ में पिष्ट पशु (आटेके पश) का विधान किया जाने लगा। इस बात को लोकमान्य तिलक जैसे उच्च कोटि के विचारक विद्वानोंने भी स्वीकार किया है। पशुजातिकी रक्षा और धर्मान्धताके निराकरणका कार्य करनेके साथ ही महावीरने हीनों, पतितजनों तथा स्त्रियोंके उद्धारका भी कार्य किया । 'प्रत्येक योग्य प्राणी धर्म धारण कर सकता है और अपने आत्माका कल्याण कर सकता है' इस उदार घोषणाके साथ उन्हें ऊँचे उठ सकनेका आश्वासन, बल और साहस दिया। महावीर के संघमें पापोसे पापी भी सम्मिलित हो सकते थे और उन्हें धर्म धारणकी अनुज्ञा थी। उनका स्पष्ट उपदेश था कि 'पापसे घृणा करो, पापीसे नहीं' और इसीलिए उनके संघका उस समय जो विशाल रूप था वह तत्कालीन अन्य संघोंमें कम मिलता था । ज्येष्ठा और अंजनचोर जैसे पापियोंका उद्धार महावीरके उदारधर्मने किया था। इन्हीं सब बातोंसे महान् आचार्य स्वामी समन्तभद्रने महावीरके शासन (तीर्थ-धर्म) को 'सर्वोदय तीर्थ सबका उदय करनेवाला कहा है। उनके धर्मकी यह सबसे बड़ी विशेषता है। महावीरने अपने उपदेशोंमें जिन तत्त्वज्ञानपूर्ण सिद्धान्तोंका प्रतिपादन एवं प्रकाशन किया उन पर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है : १. सर्वज्ञ (परमात्म) वाद-जहाँ अन्य धर्मों में जीवको सदैव ईश्वरका दास रहना बतलाया गया है वहाँ जैन धर्मका मन्तव्य है कि प्रत्येक योग्य आत्मा अपने अध्यवसाय एवं प्रयत्नों द्वारा स्वतन्त्र, पूर्ण एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211693
Book TitleMahavir ki Dharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ceremon
File Size511 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy