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किसी पुजारी को नियुक्त करके हम प्रसन्न नहीं हो सकते कि हम पूजा कर रहे हैं। हम केवल वेतन दे रहे होते हैं । पूजा करना है तो स्वयं करनी होगी। धनी से धनी बाप का बेटा भी पिता से यह नहीं कह सकता कि परीक्षाएं सिर पर हैं, पाठ्यक्रम की चिन्ता है, चार छ: नौकर लगा दीजिए जो मेरे लिए पाठ्यक्रम पूरा कर लें।
जब सभी पदार्थ स्वतंत्र हैं तब एक के द्वारा दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करना गलत लगता है । हस्तक्षेपकर्ता ऐसा तभी करता है जब वह दूसरे की विराटता को अनदेखा करता है। हस्तक्षेप करना और हस्तक्षेप सहना दोनों ही हानिकर हैं। इससे कठिनाइयाँ और संघर्ष खड़े होते है । आत्मा के चारों ओर आस्रव एकत्र होता है और मुक्ति से दूरी बढ़ जाती है। जब हम हस्तक्षेप करते हैं तब दूसरे के लिए उपादान बनने की चेष्टा करते हैं । और दूसरे के लिए उपादान बनने की चेष्टा करना हिंसा है। महावीर कहते हैं, दूसरे के लिए उपादान बनने का प्रयत्न मत करिये । पदार्थ स्वतंत्र है और वे अपने कर्मों के अनुसार परिणमन करते हैं । आप अपने अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से बाहर जाकर दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश मत करिये । पर, महावीर की बात हम सुनते कहाँ हैं ? परिवार का मुखिया समझता है कि घर उस पर निर्भर है। वह घर को अपने सिर पर रख लेता है, अपनी इच्छाएँ
और अपने विचार परिवार के सदस्यों पर थोपता है । पिता अपने पुत्र के लिए अध्ययन विषय तय करता है। उसे पिता की इच्छानुसार डाक्टर या इंजीनियर बनना पड़ता है । विवाह के संदर्भ में उसे उनकी पसन्द के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ता है । पिता अपने पुत्र और उसके बाद की पीढ़ी के लिए सम्पत्ति को संचित करने में अपने आप को खपाता है । यहाँ मुखिया और पिता, अपने परिवार, अपने पुत्र तथा उसके बाद की पीढ़ी के लिए उपादान बनने के चक्कर में है और जैसा मैं कह चुका हूँ, दूसरे के लिए उपादान बनने का चक्कर ही हिंसा' है । अधिक परिग्रह करने में हमारी नीयत दूसरों के लिए उपादान बनने की हो आती है। इसलिए अधिक परिग्रह भी हिंसा है । कहा जाता है कि परिग्रह तभी परिग्रह है जब हमारी मूर्छा उसमें हो । भाग्यवान हैं वे जो अधिक परिग्रह के बावजूद, मूर्खाग्रस्त नहीं होते-निलिप्त रह लेते हैं पर ऐसे भाग्यवान कहानियों में ही होते हैं । इसीलिए तो महावीर ने परिग्रह को राई-रत्ती छोड़ दिया था। भौतिक रूप से उसके छूट जाने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वह मन से भी छूट जाएगा। भौतिक रूप के वह रह जाये तो मन भी उससे संलग्न हो जाता है और यह हुमस पैदा होती है कि मैं दूसरों के लिए उपादान बनूं। इसलिये श्रावक को भी अनाप-शनाप परिग्रह से बचना चाहिये।
महावीर हमें दूसरों के लिए उपादान बनने से मना करते हैं। तो फिर एक के लिए दूसरे की भूमिका क्या सिर्फ दर्शक की है ? दूसरे पदार्थों से हमारा कोई सरोकार नहीं है। हम सब अपनी स्वतंत्र धुरी पर घूम रहे हैं-अपने कर्मों के अनुसार परिणमन कर रहे हैं तो यह तो अलगाव है । महावीर क्या इस अलगाव का ही उपदेश देते हैं ? नहीं, महावीर जैसे व्यक्ति
के चिन्तन की यह दिशा हो ही नहीं सकती। वे उक्त अलगाव के बावजूद संसार के पदार्थों के प्रति हमारे गहरे सरोकारों को रेखांकित करते हैं। उनका कहना है-दूसरों के लिए हम उपादान नहीं बन सकते, लेकिन निमित्त बन सकते हैं । अपने लिए उपादान और दूसरों के लिए निमित्त की भूमिका है हमारी । दोनों में से कोई भी भूमिका उपेक्षणीय नहीं है। महावीर द्वारा दिया गया यह सूक्ष्म जीवन-सूत्र ही नहीं स्थूल व्यवहार-सूत्र भी है । मेज बनाने में लकड़ी उपादान और बढ़ई निमित्त है। अच्छी मेज का बनना दोनों के द्वारा सही भूमिका निर्वाह पर निर्भर है। बढ़ई कितना ही सिर मारे खराब लकड़ी से अच्छी मेज नहीं बन सकती। इसी प्रकार अच्छो से अच्छी लकड़ी भी स्वतः मेज में नही बदल सकती । एक स्थिति यह भी हो सकती है कि बढ़ई खराब लकड़ी से ही अच्छी मेज बनाने के दम्भ का शिकार हो जाय । यह बढ़ई द्वारा दूसरे के लिए उपादान बनने की चेष्टा है। इससे झगड़ा खड़ा होता है । हम दूसरे को रास्ता दिखा सकते हैं, उसके लिए स्वयं चलकर उसे मंजिल पर नहीं पहुँचा सकते ।
महावीर का विश्वास अपने लिए उपादान बनने की बात में ही अकेले होता तो वे ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त शान्त बैठते। लोगों को अनथक उपदेश देते हुए नहीं घूमते । दर असल महावीर मात्र आत्मकेन्द्रित उपलब्धियों के समर्थक नहीं हैं । वे अपनी कमाई को दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं । इसीलिए अपने उद्देश्यों के द्वारा वे दूसरों के कल्याण के लिए निमित्त बने । दूसरों के लिए निमित्त की भूमिका का निर्वाह उन्होंने नहीं किया होता तो, तो क्षमा करें, शायद उन्हें मुक्ति की प्राप्ति भी नहीं होती। वे तीर्थकर और भगवान नहीं बनते उन्हें शायद फिर जन्म लेना पड़ता। ___ एक ओर महावीर ने हमें दूसरों के लिए उपादान की भूमिका न देकर अहंकार से बचाया है तो दूसरी ओर हमें दूसरों के लिए निमित्त की भूमिका देकर हमें अपनी तुच्छता के बोध से भी बचाया है। एक दृष्टि से हम कुछ भी नहीं हैं लेकिन दूसरी दृष्टि से कुछ हैं भी। एक दृष्टि से हम अलग हैं, अपने कक्ष में सीमित हैं । लेकिन दूसरी दृष्टि से हम ओरों से जुड़े हुए भी हैं । हमारे कक्ष का दरवाजा दूसरे कक्षों में खुलता है। हम अकेले भी हैं और भीड़ के साथ भी हैं। भीड़ में रहते हुए भी हमारी निजता बनी हुई है। हमें पहचाना भी जा सकता है और भीड़ की सपाटत, में भी हमारी यात्रा हो रही है । इस प्रकार महावीर हमें अहंकार और हीनता ग्रन्थि दोनों से बचाते हैं।
दूसरों के लिए उपादान बनने की चेष्टा न करके क्या हम दूसरों पर अहसान करते हैं ? अहसान या दया का प्रश्न ही नहीं है। यह तो उनका प्राप्तव्य है जो हम उन्हें देते हैं। हम दूसरों की हिंसा नहीं करते तो दूसरों पर यह हमारी कृपा नहीं है । दया भाव या कृपा भाव से तो महावीर की यात्रा आरंभ ही नहीं हुई। यह तो दूसरों का अधिकार है कि हम उनके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश न करेंउनकी हिंसा न करें, यह हमारा अधिकार है । यह तो पारस्परिक है । इसमें अहसान कैसा?
राजेन्द्र-ज्योति
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