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डा. पानसे यादवकालीन महाराष्ट्र में लिखते हैं कि 'राष्ट्रकूटों का राज्यकाल जैन धर्म की विशेष उन्नति का समय था।' राष्ट्रकूट वंश के राजा तो जैन थे ही पर उसके अधीन राजा, सामंत सेनापति तथा अधिकारी भी जैन धर्म के उपासक थे। कई राज्य पुरुषों ने संन्यास लेकर संल्लेखना के द्वारा समाधि मरण स्वीकृत किया। राजाओं की तरह विद्वान आचार्यों ने भी जैन तत्वों का प्रभावशाली प्रचार किया, विविध भाषाओं में, लोकभाषा में धार्मिक साहित्य निर्माण किया जिसका जन मानस पर प्रभाव पड़ा।
उनके गुरु थे। जो दिग्गज विद्वान थे। आचार्य जिनसेन ने अपने गुरु द्वारा अधुरे छोड़े गए जय धवल महाग्रंथ की पूर्ति की। अमोघवर्ष ने आचार्य उग्मदित्य जो वैद्यक विद्या के निष्णात थे। उन्हें तथा अन्य वैद्यों व विद्वानों में 'मद्यभास' के वैज्ञानिक विवेचन की चर्चा करवाई। इस ऐतिहासिक चर्चा को कल्याणकारक नामक ग्रंथ में परिशिष्ठ के रूप में सम्मिलित किया गया। यों वह अपने उत्तर काल में बीच-बीच में अवकाश ग्रहण कर अकिंचन होकर धर्मोपासना करता रहता था। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राज्य का भार उसने अपने पुत्र युवराजकृष्ण द्वितीय को सौंपकर विरक्त त्यागी श्रावक का जीवन व्यतीत किया। उसका पुत्र कृष्णद्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष उसके जीवनकाल में ही ई. ८७८ में राज्य-गद्दी पर आसीन हुआ। वैसे वह ८७५ से ही राजकाज देखता था, पर राज्याभिषेक ८७८ में हुआ। उसने ९१४ तक राज्य किया, जो जैन धर्मानुयायी था और उसके राज्य काल में भी मंदिरों, मठों, विद्याकेन्द्रों को विपुल दान दिया गया। जैन साहित्य की रचना हुई थी। उसके पश्चात् उसका पोता इंद्र तृतीय ९१४ से ९२२ तक शासक रहा। इसने भी अनेक राजाओं को अपने सेनापति नरसिंह और श्री विजय की सहायता से पराजित किया था। वह स्वयं तो जैन था ही पर उसके शूर सेनापति जैन ही थे। उसके बाद ९२२ से ९३९ तक जो राजा हुए हैं वे कोई महत्वपूर्ण कार्य न कर सके पर ९३९ में तृतीय कृष्णराज अमोघवर्ष सिंहासन पर बैठा जो राष्ट्रकूट वंश के अंतिम नरेशों में पराक्रमी था और सुयोग्य था । वह वीर योद्धा, दक्ष, सेनानी, मित्रों के प्रति उदार और धर्मात्मा नरेश था। अपने पूर्वजों की भांति जैन धर्म का पोषक और विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके गुरु जैनाचार्य वादिमंगल भट्टी थे। जो उसके शत्रुओं को पराजित करते व युद्ध की प्रेरणा देते थे। उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। इसने कन्नड़ के महाकवि पोन का सम्मान किया था । सोमदेव ने थरासिलंक व भीति वाक्यामृत की रचना कृष्ण के चालुक्य सामंत आश्रय में गंगाधर नगर में की थी। कृष्ण के प्रधानमंत्री भरत थे। वे जैन धर्म के अनुयायी और अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदंत के आश्रयदाता थे । कृष्ण के बाद उसका भाई खोटिग्ग नित्यवर्ष राजा हुआ। जिसने ९३७ से ९७२ तक राज्य किया। मालवे के सियकहर्ष ने ९७२ में मान्यखेट पर आक्रमण किया, जिसमें खोटिग्ग मारा गया और राजधानी को लूट कर भस्म किया। जिसका कवि पुष्पदन ने विनाश का करुण चित्रण किया। इसके बाद खोटिग्ग का पुत्र कर्क द्वितीय राजा हुआ। जिसने सिर्फ १ वर्ष राज्य किया। राष्ट्रकूट का अंतिम राजा इंद्र चतुर्थ था । वह वीर तथा योद्धा था। उसने और सेनापति मारसिंह ने अनेक युद्ध कर राज्य को संभालने की कोशिश की पर वे स्थायी रूप से सफल न हो सके। ९७४ में मारसिंह ने सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण प्राप्त किया। ९८२ में इन्द्र भी जैन मुनि हो गया। इन्द्र चतुर्थ ने भी कई वर्ष सल्लेखना द्वारा मृत्यु का वरण किया उसकी मृत्यु के बाद राष्ट्रकूट वंश और साम्राज्य का अंत हुआ।
राष्ट्रकूट कुल का शासन करीब २५० साल तक महाराष्ट्र में रहा। प्रारंभ में राष्ट्रकूट राजा हिन्दूधर्म के रहे तो भी उन्होंने जैन धर्म को आश्रय तथा संरक्षण दिया था। आगे चलकर तो राजा जैन ही हो गये और जैन धर्म एक तरह से राजधर्म ही बन गया था। बौद्ध निस्तेज हो गये थे। राष्ट्रकूटों के राज्यकाल में यज्ञ संस्था समाप्त-सी हो गई थी किन्तु दैनिक जीवन में स्नान, संध्या, पूजा, अची आदि आचारों का सख्ती से पालन किया जाने लगा था । मूर्तिपूजा का महत्व बढ़ा । व्रतों की अत्यधिक वृद्धि होने लगी। पुराणों को प्रोत्साहन मिलने से देवी-देवताओं की संख्या में वृद्धि हुई। तीर्थयात्रा और दान धर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला। हूण, शक आदि विदेशियों को भारतीय बनाया गया। डा. अल्लेकर कहते हैं--'यद्यपि शंकराचार्य का उदय इस काल में हुआ था किन्तु उनके जगद्गुरुत्व या मठाधिपतित्व को इस काल में मान्यता प्राप्त नहीं हुई थी।' वैसे ही यादवकालीन महाराष्ट्र में डा. पानसे ने लिखा है कि 'शंकराचार्य के बाद पूरे भारत में जो हिन्दू धर्म के पुनरुज्जीवन की बाढ़ आई उसका दिखाई दे ऐसा परिणाम जैन धर्म पर नहीं हुआ। तंत्र मार्ग का और नाथ मुनियों का प्रभाव महाराष्ट्र में बढ़ा।
इस काल में हिन्दू समाज में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया । मुस्लिमों के साथ संपर्क में आने से जाति बंधनों में अधिक सख्ताई
और तीव्रता आई। वैश्य और शूद्रों पर कष्टप्रद जाति बंधन निर्माण होने लगे। बहुजन समाज में दसवीं और ग्यारहवी शताब्दी में सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक दृष्टि से विषमता अत्यधिक बढ़ी। पावित्र्य के विषय में ऐसी कल्पना रूढ़ हुई कि भिन्न-भिन्न जातियों में रोटी-बेटी व्यवहार निषिद्ध माना जाने लगा। छुआछूत
और पावित्र्य को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया जाने लगा। ब्राह्मणों में भी ऊंच-नीच के भेद शुरू हुए। धोबी, मोची, बुनकर, कुम्हार, कोली आदि जातियां शूद्र मानी जाने लगीं। धर्म भ्रष्ट को फिर से परिवर्तन करने में जो देवल स्मृति में सुविधा या उसमें तथाकथित सनातनी बाधा निर्माण करने लगे। इसी काल में मंदिरों में देवदासी प्रथा शुरू हुई। विधवा के केश वपन तथा सतीप्रथा को बढ़ावा मिला । सनातनियों में असहिष्णुता, बेहद देवताओं की वृद्धि और संप्रदाय व पंथों की बाढ़ और मतभेदों के कारण मुसलमानों को अपने धर्म का प्रसार करने एवं सत्ता बढ़ाने की सुविधा हुई।
वी. नि.सं. २५०३
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