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જ્ઞાનાંજલિ
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___ 'विवाहपण्णत्ती' (सं० व्याख्याप्रज्ञप्ति दूसरा नाम भगवतीसूत्र) और 'नायाधम्मकहाओ' (सं० ज्ञाताधर्मकथाः) आदि जैन आगम ग्रन्थों में " यापावकेहि " अंशके साथ तुलना को जाय ऐसा पाठ और साथमें इसका अर्थ भी मिलता है । जो इस प्रकार है
"वाणियगामे नामं नगरे x x x सोमिलं नाम माहणे x x x समणं भगवं महावीरं एवं बयासी - जत्ता ते भत्ते ! ? जवणिज ते भंते ! ? अव्वाबाहं पि ते ? फासुयविहारं ते ? सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे । x x x किं ते भंते ! जवणिज ? सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इंदियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य। से किं तं इंदियजवणिज्जे ? सोमिला ? जं मे सोइन्दियचक्खिदियधाणिदियजिभिदियफासिंदियाइ निरुवहयाई वसे वटंति से तं इन्दियजवणिज्जे । से किं तं नोइन्दियजवणिज्जे ! सोमिला ! जं मे कोहमाणमायालोभा वोच्छिन्ना नो उदोरेंति से तं नोइंदियजवणिज्जे । सेत्तं जवणिज्जे ॥
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ७५७-५८ ॥ यह उपर्युक्त पाठ ही अक्षरशः 'नाया धम्मकहाओ' आदि जैन आगमोंमें नज़र आता है। फ़र्क मात्र इतना है कि- 'भगवतीसूत्र' में सोमिलनामका ब्राह्मण श्रमण भगवान महावीरको ये प्रश्न पूछता है, तब ‘ज्ञाताधर्मकथाः' आदि सूत्रोंमें शुक नामक परिव्राजक आदि भिन्न भिन्न व्यक्ति थावच्चापुत्र आदि मुनियोंको ये प्रश्न पूछते हैं ।
आचार्य अभयदेवने उपर्युक्त सूत्रकी टीकामें 'जवणिज्ज' का संक्षित अर्थ इस प्रकार लिखा है'यापनीयं' मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः ।।
. -भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ७५९ इस लेखमें जिन शास्त्रीय पाठोंका उल्लेख किया गया है वे सभी श्वेताम्बर जैन सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें पाठ हैं। दिगम्बर जैनसम्प्रदायके ग्रन्थों में " कायनिसीदीयाय यापावकेहि " अंशके साथ तुलना की जाय ऐसे पाठ हैं या नहीं यह जब तक मैंने दिगम्बर साहित्यका मध्ययन नहीं किया है तब तक मैं नहीं कह सकता हूँ। और न्याय-व्याकरणतीर्थ पं० श्रीहरगोविंददास कृत 'पाइअसद्दमहण्णवो' आदि कोशोंके जैसा कोई दिगम्बर साहित्यका कोश भी नहीं है कि जिसके द्वारा मेरे जैसा अल्पाभ्यासी भी निर्णय कर सके । दिगम्बर सम्प्रदायके साहित्यके विशिष्ट अभ्यासी पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमी और 'अनेकान्त' पत्रके सम्पादक बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार महाशयके द्वारा मुझे समाचार मिले हैं कि - ऊपर लिखे पाठोंके साथ तुलना की जाय ऐसा कोई पाठ दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें अभी तक देखनेमें नहीं आया हैं।
१. देखो पत्र १०६-७.
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