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________________ उक्त उपाधि प्राप्त होनी ही चाहिए थी, ऐसी मेरी धारणा थी तथा उसकी खोज में मैं बड़ा व्यन भी था। प्रस्तुत ग्रन्थ-प्रशस्तिने उस व्यग्रताको दूर ही नहीं किया, बल्कि आधुनिक इतिहासकारोंको तोमरकालीन नवीन रूपमें लिखने के लिए नयी प्रेरणा देकर नया प्रकाशन भी दिया है। इतिहासकी दष्टिसे निस्सन्देह ही यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है तथा इस रूप में एक महान् नरव्याघ्र, पराक्रमी, कर्तव्यनिष्ठ एवं जैनधर्म-परायण राजाके महान् कार्योंका सही एवं न्यायपूर्ण मूल्यांकन कर उसे यथार्थ ही गौरव प्रदान किया गया है। इसी प्रकार तोमर राजाओंकी परम्पराका वर्णन करनेवाले कुछ ग्रन्थोंमें राजा डूंगरसिंहके पिता गणपतिदेवका नामोल्लेख नही मिलता तथा विक्रमके बाद उनके पौत्र डूंगरसिकके गद्दीपर बैठनेकी तुक समझमें नहीं आती थी किन्तु इसका स्पष्टीकरण प्रस्तुत ग्रन्थके लिपिकारकी प्रशस्तिसे हो जाता है। उसने जो लिखा है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विक्रमके बाद डूंगरसिंह नहीं, बल्कि गणपति गद्दीपर बैठे, भले ही वे अत्यल्पकालके लिए राजा बने हों और किसी कारणवश शीघ्र ही उनके पुत्र डूंगरसिंहको राजगद्दी सम्हालनी पड़ी हो / अतः वर्तमान कालमें प्रचलित तोमरोंकी वंशपरम्परा सम्बन्धी मान्यता भी उक्त प्रमाणके आधारपर भ्रामक सिद्ध हो जाती है / "प्रस्तुत प्रतिकी दूसरी ऐतिहासिक महत्त्वकी विशेषता यह है कि इसकी लिपिकारकी प्रशस्तियों में पैरोज (फ़िरोज) नामक सुल्तानकी चर्चा आती है। रइधूने अपने अन्य ग्रन्थोंमें भी सुल्तान पैरोज साह (फ़ीरोज़ शाह) की चर्चा करते हुए उसके द्वारा हिसारनगरके बसाये जाने की चर्चा की है। एक अन्त्यप्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट है कि रइधूके एक आश्रयदाता तोसउ साहूका पुत्र वील्हा साहू पैरोज साहके द्वारा सम्मानित था। इससे यह प्रतीत होता है कि पैरोज साह जनसमाज एवं जैनधर्मके प्रति काफी आस्था बद्धि रखता था। असम्भव नहीं, यदि, उसके मन्त्रिमण्डलमें वील्हा जैसे कुछ राजनीतिज्ञ एवं अर्थशास्त्री श्रीमन्त जैन भी सम्मिलित रहे हों। रइधू-साहित्यके मध्यकालमें हिसार नगर जैनियों एवं जैन-साहित्यका बड़ा भारी केन्द्र था। प्रस्तुत प्रतिकी तीसरी विशेषता यह है कि इसकी प्रतिलिपि कविके आश्रयदाता खेउसाहूके चतुर्थ पुत्र होलिवम्मुने करायी थी। ये होलिवम्मु या होलिवर्मा वही है जो सदाचारकी प्रतिमूर्ति थे तथा जिन्होंने अपने पिताकी तरह ही स्वयं भी महाकविको आश्रयदान देकर अपने जीवन में आध्यात्मिक ज्योति जगानेवाली 'दशलक्षणधर्म जयमाला" नामक रचनाका प्रणयन कराया था। इस दृष्टिसे प्रतिकी प्रामाणिकतामें दो मत नहीं हो सकते। यह भी सम्भव है कि होलिवम्मु द्वारा लिखित अथवा लिखवायी हुई अन्य रचनाएँ भी हों, जिनका प्रकाशन भविष्यके गर्भमें है। इस प्रकार महाकवि रइधकी प्रस्तुत 'पासणाहचरिउ'को विशेष प्रतिके सम्बन्धमें यहाँ चर्चा की गयी है। उसके कलापक्ष एवं भावपक्ष अथवा अन्य विषयोंको मैंने स्पर्श नहीं किया। इसी प्रकार कविके विषयमें भी मैंने कुछ भी चर्चा नहीं की। क्योंकि यहाँ मात्र उपलब्ध नवीन सचित्र प्रतिकी सचित्रता एवं उसकी अन्त्यप्रशस्तिमें उपलब्ध तथ्योंके अनुसार उसका ऐतिहासिक मूल्यांकन करनेका यत्किचित् प्रयास किया है / कविके व्यक्तित्व एवं कृतित्वपर मैं कई शोध-निबन्धोंमें विस्तृत विचार कर चुका हूँ। यहाँ उनको पुनरावृत्ति मात्र ही होती। 1. दे० दहलक्खणजयमालका अन्तिम पद्य / इतिहास और पुरातत्त्व : 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211642
Book TitleMahakavi Raidhu ki Aprakashit Sachitra Kruti Pasnahachariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherZ_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf
Publication Year1977
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size615 KB
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