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उत्तरीय वस्त्रका छोर पार्श्वमें अथवा पीछेकी ओर फहराता हआ अंकित है। मोटे किनारेवाले अधोवस्त्रको चुन्नट देकर पहिना हुआ दिखाया गया है । ये सभी वस्त्र कुछ मोटे किन्तु अलंकृत प्रतीत होते हैं।
आभूषणोंमें कहीं-कहीं माथेपर कलँगीदार रत्नजटित स्वर्णमुकुट, कानोंमें कुण्डल तथा हाथोंमें बाजूबंद एवं कड़े पहिने हुए हैं ।
देवों एवं पार्श्वनाथके दि० मुनिपद एवं कैवल्यप्राप्तिके समयके चित्र भी इसमें अंकित किये गये हैं। देवोंको अर्धनग्न मद्रामें प्रदर्शित किया गया है। वे एक मोटे किनारेवाला रंगीन अधोवस्त्र धारण किये हुए हैं, जो घुटनेसे कुछ नीचे तक लटका हुआ है तथा उसकी चुन्नट कुछ आगेकी ओर उड़ती हुई दिखाई गई है। उनका बायाँ हाथ आधा गिरा हुआ एवं दायाँ हाथ तीर्थङ्करपर चंवर ढु राता हुआ दिखाया गया है। उनके माथेपर मणिरत्न जटित कुछ निचली भित्ती वाला, कर्णपर्यन्त माथा ढकने वाला, कलंगीदार स्वर्णमुकुट है। वे कानोंमें विशाल चक्राकार कर्णफूल, गलेमें सटा हुआ दो लड़ीका मोटे गुरियों वाला हार, कलाईमें मोटे-मोटे कड़े एवं दो लडीका बाजूबन्द धारण किये हए हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थके मुखपृष्ठपर पार्श्वप्रभुका पद्मासन युक्त एक चित्र है, जिसके दोनों पाश्वोंमें चँवर ढराते हुए पार्श्वचर-सेवकके रूप में दो देवोंका अंकन है। पीछेकी ओर कुछ ऊँचाईपर दो ऐरावत हाथी अपने शुण्डादण्डोंमें मंगलकलश लिये हुए दिखाये गये हैं। उसकी पृष्ठभूमिमें शिखरबन्द विशाल एक तोरणोंवाला द्वार है, जिसके दोनों ओर छोटी-छोटी ३-३ मठियां आलिखित हैं। बीचके शिखरपर दो विशाल ध्वजाएँ विपरीतमुखी होकर फहरा रही हैं ।
तीर्थंकर मूर्ति के चित्रणके समय तदनुसार वातावरणकी व्यंजनाका प्रयास दिखाई पड़ता है । आजूबाजूमें चँवर, माथे पर छोटे-बड़े छतों वाला तथा मोतीकी लड़ोंसे गुंथा हुआ फुदनोंसे युक्त छत्र तथा अगलबगलमें दो धर्मचक्र बने हुए हैं। प्रतिके प्रारम्भिक पृष्ठपर दो चित्र बड़े ही आकर्षक एवं भव्य बन पड़े हैं। एक चित्र में पाँच व्यक्ति अंकित है। एकके पीछे एक, इस प्रकार तीन व्यक्ति एक पंक्तिमें तथा सभी अपने एक-एक घुटने के बलपर बैठे हैं । उनके सम्मुख ही आगे-पीछे अन्य दो व्यक्ति स्थित हैं। पाँचोंमेंसे मध्यवर्ती व्यक्तिका एक हाथ तो घुटनेपर स्थित है। तथा दूसरा हाथ धर्मोपदेश देने के कारण ऊपरकी ओर संकेतकर कुछ समझाता हुआ दिखाया गया है। बाकीके सभी व्यक्तियोंके दोनों दोनों हाथ जुड़े हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि चित्रकारने इस चित्र में महाकवि रइधकी गुरु-परम्पराका अंकन किया है। उपदेशकके रूप में भ० सहस्र कीर्ति हैं तथा श्रोताओंमें उनके शिष्य क्रमशः भट्टारक गुणकीति तथा उनके भाई एवं शिष्य भ. यशःकीत्ति तथा यश कीत्तिके शिष्य खेमचन्द्र एवं महाकवि रइधू । इस चित्रवाले पृष्ठपर वर्णनप्रसंग भी उक्त व्यक्तियोंका ही है। हमारे इस अनुमानका आधार पूर्ववर्ती अन्य सचित्र हस्तलिखित प्रतियाँ ही हैं । 'त्रिलोकसार' की सचित्र प्रतिलिपिमें उसके लेखक सि० च० नेमिचन्द्र (११वीं शती) एवं सुगन्धदशमी कथामें उसके लेखक जिनसागर (१२वीं शती) जिसप्रकार चित्रित है, ठीक वही परम्परा इस ग्रन्थमें भी अपनाई गई होगी, इसमें सन्देह नहीं। अतः यदि मेरा उक्त अनुमान सही है तब भट्टारकोंके साथ-साथ ही रइधू जैसे एक महाकविके अत्यन्त दुर्लभचित्रकी एक सामान्य रूपरेखा भी हमें आसानीसे उपलब्ध हो जाती है, जिसका कि अभाव अभीतक खटकता था। इस उपलब्धिको हम मध्यकालीन साहित्यकारों सम्बन्धी उपलब्ध अभीतक समस्त जानकारियोंमेंसे एक विशेष ऐतिहासिक महत्त्वकी उपलब्धि मान सकते हैं। दूसरा भव्यचित्र इसी चित्र की दायीं ओर चतुर्भुजी सरस्वतीका चित्रित है। उसके एक दायें हाथमें कोई ग्रन्थ सुरक्षित है तथा बायें हाथमें वीणा । बाकी दो हाथोंमें क्या है, यह स्पष्ट नहीं होता। उसके वाहनका भी
१८४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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