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________________ 0. Jain Education International ५८० +0+0 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड +88 निम्नलिखित स्थल अत्यन्त मर्मस्पर्शी कहे जा सकते हैं-बन्धुदत्त का भविष्यदत्त को अकेला मेगानद्वीप में छोड़ देना और साथ के लोगों का सन्तप्त होना, माता कमसभी को भविष्यदत्त के न लौटने का समाचार मिलना, बन्धुदत्त का का लौटकर आगमन, कमलधी का विलाप और भविष्यदत्त का मिलन आदि । कमलधी विलाप करती है कि हा हा पुत्र ! मैं तुम्हारे दर्शन के लिए कब से उत्कण्डित है। चिरकाल से आशा लगाये बैठी हूँ । कौन आँखों से यह सब देखकर अब समाश्वस्त रह सकता है ? हे धरती ! मुझे स्थान दे, मैं तेरे भीतर समा जाऊँ पूर्वजन्म में मैंने ऐसा कौन-सा कार्य किया था, जिससे पुत्र के दर्शन नहीं हो रहे हैं। इस प्रकार के वचनों के साथ विलाप करते हुए उसे एक मुहूर्त बीत गया । हा हा पुत पुत उत्कंठियां घोरंतfरकालिपरिट्ठियई । को पिक्चवि मणु उम्मुरभि महि विवरु देहिविं पइसरमि हा पुव्वजम्मि किउ काई मई णिहि देसणि णं णयणई हयई । इसके अलावा इसमें रस-व्यंजना की दृष्टि से श्रृंगार, वीर और शान्त रस का परिपाक हुआ है । संवाद - योजना - कवि धनपाल के कथाकाव्य में संवादपूर्ण कई स्थल दृष्टिगोचर होते हैं, जिनमें काव्य का चमत्कार बढ़ गया है और कथानक में स्वाभाविक रूप से गतिशीलता आ गयी है। मुख्य रूप से निम्न संवाद भविसयतका में द्रष्टब्ध है— प्रवास करते समय पुत्र भविश्यदत्त और माता कमलधी का वार्तालाप, भविष्यदत्तभविष्यानुरूपा का संवाद, राक्षस-भविश्यदत्त संवाद, भविष्यदत्त दत्त संवाद, कमलश्री मुनि-संवाद, बन्धुदत्त-सपा -संवाद और मनोवेग विद्याधर- भविष्यदत्त तथा मुनिवर संवाद आदि । -- शैली - धनपाल के कथाकाव्य में अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्यों को कडवकबन्ध शैली प्रयुक्त है । कडवक बन्ध सामान्यतः १० से १६ पंक्तियों का है। कडवक, पजारिका, अडिल्ला या वस्तु से समन्वित होते हैं। सन्धि के प्रारम्भ में तथा कवक के अन्त में ध्रुवा, ध्रुवक या धत्ता छन्द प्रयुक्त है । धत्ता नाम का एक छन्द भी है किन्तु सामान्यतः किसी भी छन्द को धत्ता कहा जा सकता है । - ( भ० क० ८, १२) भाषा - धनपाल की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है पर उसमें लोकभाषा का पूरा पुट है। इसलिए जहाँ एक और साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग है वहीं लोक-जीवन की सामान्य बातों का विवरण घरेलू वातावरण में गणित है। उदाहरण के लिए सजातीय लोगों का जेवनार में पढ़ रसों वाले विभिन्न व्यंजनों के नामों का उल्लेख है, जिनमें घेवर, लड्डू, खाजा, कसार, मांडा, भात, कचरिया, पापड़ आदि मुख्य हैं । गुणाधारिया लड्डुवा खीरखज्जा कसारं सुसारं सुहाली मणोज्जा । पुणो कचरा पप्पडा डिष्ण भेया जयंताण को वण्णए दिव्व तेया ॥ डॉ० हर्मन जेकोबी के अनुसार धनपाल की भाषा बोली है, जो उत्तर-प्रदेश की है। अपभ्रंश की जिन विशेषताओं का निर्देश किया है वे भविसयतका में भली भांति दृष्टिगोचर होती है।" - ( भ० क० १२, ३) डॉ० नगारे ने पश्चिमी अलंकार - योजना- धनपाल ने इस कथा काव्य में सोद्देश्यमूलक अलंकारों में उपमा और उत्प्रेक्षा का प्रयोग किया है । उपमा में कई रूप दृष्टिगोचर होते हैं । मूर्त और अमूर्त भाव में साम्य है । जैसे १. डॉ० गजानन वासुदेव नगारे हिस्टारिकन ग्रामर आयु अपभ्रंश, पूना, १९४० पृ० २३० : ते विदिट्टु कुमारू अकायरू कडवाणालिण णाई रयणाख - ( भ० क०५, १८ ) इसी प्रकार प्रकृति-वर्णन में मानवीय रूपों तथा भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है । कवि की उर्वर एवं अनुभूतिमयी कल्पना का परिचय उसकी अलंकार योजना में मिलता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211640
Book TitleMahakavi Dhanpal Vyaktitva aur krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Kudal
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size608 KB
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