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________________ ११३ महाकवि धनपाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व आर्यासप्तशती में लिखा है कि- 'प्रागल्यमधिकमाप्तु वारणी बारणो बभूवेति' अर्थात् - अधिक प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए सरस्वती ने मानो बाण का शरीर धारण कर लिया था ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कवि गोवर्धन की इस उक्ति को ध्यान में रखकर ही मुञ्जदेव ने बाण के समान सिद्ध सारस्वत धनपाल को सरस्वती' की उपाधि प्रदान की थी कहा जाता है कि मुञ्जदेव का धनपाल पर अत्यन्त स्नेह था वे उन्हें अपना 'कृत्रिम पुत्र' मानते थे । राज्याश्रय में रहने पर भी धनपाल अत्यन्त निर्भीक एवं स्वाभिमानी थे। उन्होंने राजा के कोप की भी उपेक्षा करके सदैव उचित मार्ग का अवलम्बन किया । भोजराज द्वारा, तिलक मंजरी के नायक के रूप में अपने को प्रतिष्ठित किए जाने की इच्छा व्यक्त करने पर धनपाल ने कहा था 'राजन् ! जिस प्रकार खद्योत और सूर्य में सरसों और सुमेरू में कांच और काञ्चन में धतूरे और कल्पवृक्ष में महान् अन्तर है उसी प्रकार तिलकमञ्जरी के नायक और आप में धनपाल का हृदय प्रत्यन्त दयार्द्र था । एक समय मृगया के प्रसङ्ग में भोजराज द्वारा मारे गये मृग को देखकर उन्होंने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा था अर्थात् - हे राजन् ! इस प्रकार का आपका पौरुष रसातल को चला जाय । निर्दोष और शरणागत का वध कुनीति है । बलवान् भी जब दुर्बल को मारते हैं तो यह बड़े दुःख की बात है, मानो समस्त जगत् ही अराजक हो गया। कहा जाता है कि धनपाल के ये वचन सुनकर भोजराज ने आजीवन मृगया छोड़ दी थी।" इसी प्रकार, एक समय यज्ञ मंडप में यूप (स्तम्भ) से बन्धे छाग ( बकरे ) के करुण क्रन्दन को सुनकर धनपाल ने कहा था कि रसातले यातु तवात्र पौरवं कुनीतिरेणा शरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद् बलिनापि दुर्बलां हहा महाकष्टमराजकं जगत् ॥' & अर्थात् यदि यज्ञ करके पशुओं को मारकर और खून का कीचड़ बनाकर स्वर्ग में जाया जाता है तो फिर नरक में कैसे जाया जाता है ? ज्ञानीजनों का यज्ञ तो वह है जिसमें सत्य ग्रुप हो, तप अग्नि हो, कर्म समिधा हो और महिसा जिसकी प्राहूति हो । कहते हैं राजा ने धनपाल के ये वचन सुनकर अपने को जैन धर्म में दीक्षित किया था । - Jain Education International । कर्दमम् । गम्यते । समिधो मम । सतां मतः । ६- श्री मुजेन सरस्वतीति सदसि क्षोणीभूता व्याहृत' तिलकमञ्जरी पद्य नं० ५३. ७- प्रबन्ध चिन्तामणि ( महाकवि धनपाल प्रबन्ध ) वही वही , यूपं कृत्वा पान् हत्वा कृत्वा रुधिर यद्य ेवं गम्यते स्वर्गे नरक केन सत्यं यूपं तपो ह्यानिः कर्माणि अहिंसामाहूति दद्यादेवं यज्ञ: For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211639
Book TitleMahakavi Dhanpal Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size898 KB
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