________________ पुरुणोंका वर्णन हो, उसे महापुराण कहते हैं / धर्म तत्वका निरूपण रहनेके कारण पुराण धर्मशास्त्र भी कहलाता है / जैन पुराण साहित्य अपनी प्रामाणिकताके लिये प्रसिद्ध है / प्रामाणिकताका मुख्य कारण लेखकका प्रामाणिक होना है। तथ्यपूर्ण घटनाओं पर ही जैन पुराणोंका कथाभाग आधारित है। असम्भव तो कल्पनाओंसे दूर / अधिकांश पुराण ग्रन्थ गुणभद्रके उत्तरपुराण पर आधारित है। शान्तिपुराणमें कविने यथार्थ घटनाओंका वर्णन किया है, बीचमें आये हुये सन्दर्भ मर्मस्पर्शी तथा जैन सिद्धान्तका सूक्ष्म विश्लेषण करनेवाले हैं। शान्तिपुराणमें इस अवपिणी युगके सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ भगवानका पावन चरित वर्णित है। श्री शान्तिनाथ चक्रवर्ती और कामदेव पदके धारक थे। तीर्थंकर पद अत्यन्त दुर्लभ पद है / अनेक भवोंमें साधना करनेवाले जीव ही इस पदको प्राप्त कर सकते हैं। महाकवि शान्तिनाथके पूर्वभवोंका वर्णन अत्यन्त विस्तारसे किया है जिससे प्रतीत होता है कि शान्तिनाथके जीवने पूर्वभवोंमें किस प्रकार साधना कर अपने आपको तीर्थकर पद पर प्रतिष्ठित किया। इस पुराणमें 16 सर्ग हैं जिनमें प्रारम्भके 12 स!में उनके पूर्व जन्मोंका वर्णन है और अन्तिम चार सर्गों में उनके तीर्थकर कालका वर्णन है। प्रत्येक तीर्थकरके पाँच कल्याणक होते हैं-गर्भमें आगमन, जन्म, जिन दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण / ग्रन्थमें इन्हीं पाँचोंका वर्णन मुख्य रूपसे किया गया है / इसके 16 सोमें 2350 श्लोक है जिनमें कुछ शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ, उत्पलमाल, हरिणी, प्रहर्षिणी, इन्द्रवंशा, वियोगिनी, वसन्ततिलका, मालिनीमें हैं और शेष अनुष्टुप् हैं। अन्तिम सर्गोंमें जैन सिद्धान्तका विषद वर्णन है। जैन सिद्धान्तका वर्णन तत्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धिके आधार पर किया गया है। पन्द्रहवें एवं सोलहवें सर्गमें जैन सिद्धान्तका वर्णन विस्तारसे किया है। कविने शान्तिपुराणमें प्रथमानुयोगकी शैलीको अपनाया है। उन्होंने सिद्धान्त, इतिहास और लोकानुयोगका अच्छा समावेश किया है जिससे यह मात्र कथाग्रन्थ न रहकर सैद्धान्तिक ग्रन्थ भी बन गया है। साहित्यिक विशेषतायें अपने ग्रन्थों में महाकविने कोमलकान्त पदावलीके साथ-साथ सुभाषितोंका भी यथास्थान प्रयोग किया है। आदिपुराण (2-87) में सुभाषितोंको महारत्त कहा गया है। एक अन्य सन्दर्भ में सुभाषितको महामंत्र भी कहा गया है (आदि 1188) / समुद्रसे बहुमूल्य रत्नोंकी उत्पत्तिके समान ही कविके ग्रन्थ समुद्रसे सुभापित रत्नोंकी उत्पत्ति हुई है / कविने अपने ग्रन्थोंको शृंगार बहुल प्रकरणोंसे बचाकर सुभाषितमय प्रकरणोंसे सुशोभित किया है / अर्थान्तरन्यास या अप्रस्तुत प्रशंसाके रूपमें कविने संग्रहणीय सुभाषितोंका संकलन किया है। ये सुभाषित असग कवि द्वारा ही रचे होनेसे मूल ग्रन्थके अंग है। वर्धमानचरितममें संसारसे विरक्त, मोक्षाभिलाषी, दीक्षा लेनेको उत्सूक राजा नन्दिवर्धनके बार-बार समझाने पर उसका पुत्र राज्य स्वीकार नहीं करता। इस प्रसंगमें कविने "पिताका वचन चाहे प्रशस्त हो, चाहे अप्रशस्त हो उसे ही करना पुत्रका काम है, दूसरा नहीं'' के माध्यमसे सुन्दर सुभाषितका प्रयोग किया है / शान्तिपुराणके सप्तम सर्गमें आया सुभाषित स्त्रियोंकी मनोवृत्तिको बतलाता है / 2 अलंकार उस विधाका नाम है जिसके प्रयोगके द्वारा रचनाकार पाठकके मनमें अपनी इच्छानुकूल भावना उजागर कर आनन्द संचार करता है। अलंकारके प्रयोगसे कविता कामिनीके सौन्दर्यकी वृद्धि होती है / महाकविने भावोंका उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओंके रूप गुण और क्रियाका अधिक तीव्र अनुभव करानेके 1. पितुर्वचो यद्यपि साध्वसाधु वा, तदेव कृत्यं तनयस्य नापरं / (1.29) 2. स्त्रीजनोऽपि कुलोद्भूतः सहते न पराभवम् (7-87) - 484 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org