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________________ पंचम खण्ड | १८८ अचेनार्चन रूपांतरण है। ये रूपांतरण इसी क्रम में हों यह प्रावश्यक नहीं है। जन्म-जन्मान्तरों की साधना के फलस्वरूप अनेक साधकों में अन्तरात्मा के सामने आने और साधना का भार लेने से पूर्व ही आध्यात्मिक अवतरण अपूर्व रूप से प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु इससे पहले कि पूर्ण और निर्बाध आध्यात्मिक अवतरण साधित हो सके प्रान्त र आत्मिक विकास उपलब्ध करना आवश्यक है और अन्तिम विज्ञानमय रूपांतरण तब तक सम्पन्न नहीं हो सकता जब तक पहले दो पूर्ण और परिपक्व न हो लें। इन तीनों रूपांतरणों को भलीभाँति घटित करने और समझने के लिए श्री अरविंद के आरोह-अवरोह क्रम के सप्त बिन्दु विकासक्रम को संक्षिप्ततः जान लेना आवश्यक है । 'दिव्यजीवन' में इस विकास क्रम का सारगभित विस्तृत सैद्धान्तिक विवेचन किया गया है जिसे 'योगसमन्वय' में क्रियान्वित करने का सुगम उपक्रम किया गया है। निरंतर ऊपर उठने की चेष्टा (प्रयास) ही साधना कहलाती है। इसीसे साधक क्रमशः सिद्धि प्राप्त कर देह-प्राण-मन भूमियों से ऊपर उठकर विज्ञानमय भूमि में पहुँच जाता है और प्रानन्द-चैतन्य-सत् का अवतरण झेलने में सक्षम हो जाता है। वस्तुतः श्री अरविंद के विकासक्रम में कोई भी स्तर कोई भी बिन्दु निरर्थक नहीं है । सभी परमेश्वर की लीलाभूमि से सम्बद्ध होने के कारण अपने-अपने दायरे में सार्थक होता है। मानव परमेश्वर की अद्भुत जटिल रचना है। इसमें शरीर, प्राण एवं मन की पृथक्पृथक् सत्ता नहीं है वरन् अपने-अपने केन्द्रों से सम्बद्ध एक की अपेक्षा दूसरे का गौण-प्रधान उपयोग होता है। यहाँ शरीर संस्थान का क्षेत्र है शरीर के अधोभाग से लेकर नाभि तक, नाभि से लेकर हृदय तक का क्षेत्र प्राणकेन्द्र एवं हृदय से लेकर मूर्धा तक का क्षेत्र मानसकेन्द्र के अन्तर्गत है। गौण-मुख्य-भाव से देह उसे कहा जाता है जिसमें प्राण और मन की क्रिया सुप्त अर्धसुप्त या गौण होती है और शारीरिक क्रियाएँ मुख्य । प्राण वह केन्द्र है जिसके द्वारा शरीर-संस्थान अधिकृत होता है और मन अर्धस्फुट या अस्फुट होता है। मन वह स्फुट जाग्रत केन्द्र है जिसका अधिकार देह और प्राण दोनों पर होता है। बौद्धसाधना की पदावली में बोलना हो तो शरीर को भोग-प्रायतन, प्राण को क्रियाशक्ति-पायतन तथा मन को विचार-चिन्तन-पायतन कहा जा सकता है। शरीर-प्राण-मन की क्रमशः तीन वत्तियाँभोगैषणा, कमँषणा एवं ज्ञानैषणा प्रस्फटित होकर मानव में लीला करती रहती हैं। शरीर और प्राण की वृत्तियों के कारण मानव मानव नहीं कहलाता वरन मनन-चितन करने यानी ज्ञानषणा प्रधान होने के कारण ही यह वनस्पति तथा पशुरूपी प्राणीजगत् से ऊपर स्थित कहलाता है। ज्ञानैषणा के कारण ही यह आत्मचेतन कहलाता है जिसके कारण वह अपने आपको जानने का प्रयास करता है। क्योंकि यह चेतना का विशिष्ट उद्भव न तो पशु में और न ही उद्भिद् में विद्यमान है। इसीलिए क्षेत्रज्ञ होने का दिव्य संदेश दिया गया है। मानव जितने-जितने अंशों में प्रात्मचेतन या जाग्रत होता जाता है, अपनी साधना में वह उतना ही ऊपर उठता जाता है। प्रात्मचेतना का अर्थ है अपने में एक अलगाव भाव, विभेदबुद्धि-विवेक शक्ति का विकास करना या ज्ञाता-ज्ञेय में सम्बन्ध स्थापित करना । "मैं जानता है" इसे जानने के प्रयास में अपने आप को जानने की वस्तु से पृथक् करने का प्रयत्न सन्निहित है। इसी कारण वेद-उपनिषद प्रादि निगम और सभी पागम शास्त्रों के मनीषियों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211636
Book TitleMaharshi Arvind ki Sarvang yoga Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrajnarayan Sharma
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size2 MB
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