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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
श्रीमद भगवद गीता में मूर्छा (आसक्ति) की श्रृंखला का सुन्दर चित्रण किया गया है -
ध्यायतो विषयान पुंसः, संगस्तेषूपजायते। संगात संजायते कामः, कामात क्रोधोभिजायते ।। क्रोधादि भवति सम्मोहः, सम्मोहात स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्मणश्यति।। विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामनापूर्ति में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है। मूढ़भाव से स्मृतिभ्रंश हो जाने से बुद्धि -- ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धिनाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।
बाह्य परिग्रह अपने आप में पाप बन्धन का मूल कारण अन्तरंग परिग्रह है, मूछा है। परन्तु मूर्छा को परिपुष्ट करने में बाह्य परिग्रह का भी योगदान मिल जाता है। अतः उसका भी समुचित परिवर्जन आवश्यक हो जाता है। दूसरी बात, जिसके मूछी नहीं है, वह बाह्य पदार्थो का अनपेक्षित संग्रह क्यों करेगा ? 'अनासक्ति' शब्द की ओट में (हम तो भीतर से अनासक्त हैं, यह कहते हुए) पदार्थ संग्रह और विषयभोग करने वाले व्यक्ति कभी-कभी आत्मछली बन जाते है। वस्तुतः अनासक्ति हो तो वह स्तुत्य और अभिनन्दनीय
मुनि पूर्णतया अपरिग्रही होता है। श्रावक उसके स्थान पर इच्छा परिमाण व्रत को स्वीकार करता है, वह नवधा बाह्य परिग्रह का सीमाकरण करता है और उसके माध्यम से अन्तरंग परिग्रह को कृश करने की साधना करता है।
क्षेत्र (खुली भूमि), वास्तु (मकान आदि), हिरण्य (चांदी), सुवर्ण, धन, धान्य, द्विपद (दास आदि), चतुष्पद (गाय, भैंस आदि पशु-पक्षी), कुप्प (तांबा, पीतल आदि धातु तथा अन्य गृह सामग्री, चाल-वाहन आदि) – यह नौ प्रकार का परिग्रह श्रावक के लिए संयमनीय होता है।
संसार में अनेक प्रकार की शक्तियां हैं। उनमें अर्थ (धन) भी एक शक्ति है, इसे
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