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________________ ७१० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय मस्तक हो हृदय में धारण करते थे.' उक्त दूबकुण्ड में एक जैन स्तूप पर सं० १९५२ का एक और शिलालेख अंकित है जिसमें सं० १९५२ की वैशाख सुदी ५ को काष्ठासंघ के महान् आचार्य देवसेन की पादुका युगल उत्कीर्ण है. यह शिलालेख तीन पंक्तियों में विभक्त है. इसी स्तूप के नीचे एक भग्न मूर्ति उत्कीर्ण है जिस पर 'श्रीदेव' लिखा है, जो अधूरा नाम मालूम होता है. पूरा नाम श्री देवसेन रहा होगा. ग्वालियर में भट्टारकों की प्राचीन नही रही है और उसमें देवसेन विमलसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीर्ति यशःकीति, मलकीति और गुणमद्रादि अनेक भट्टारक हुए हैं. इनमें देवसेन, यशः कीर्ति, गुणभद्र ने अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना की है. दूबकुण्ड का यह शिलालेख बड़े महत्त्व का है. कच्छपघट (कछवाहा ) वंश के राजा विजयपाल के पुत्र विक्रमसिंह के राज्य में यह लेख लिखा गया है. यह विजयपाल वही हैं जिनका वर्णन बयाना के वि० सं० ११०० के शिलालेख में किया गया है. बयाना दूब कुण्ड से ८० मील उत्तर में है. इस लेख में जैन व्यापारी रिषि और दाहड़ की वंशावली दी है. जायसवंश में सूर्य के समान प्रसिद्ध धनिक सेठ जासुक था, जो सम्यग्दृष्टि था, जिनेन्द्रपूजक था, चार प्रकार के पात्रों को श्रद्धापूर्वक दान देता था. उसका पुत्र जयदेव था, वह भी जिनेन्द्रभक्त और निर्मल चरित्र का धारक था. उसकी यशोमती नामक पत्नी से ऋषि और दाहड दो पुत्र हुए थे. ये दोनों ही धनोपार्जन में कुशल थे. इनमें ज्येष्ठ पुत्र ऋषि को राजा विक्रम ने श्रेष्ठी पद प्रदान किया था. और दाड ने उच्च शिखर वाला यह सुन्दर मन्दिर बनवाया था. जिस में केक, सूट, देवघर और महीन्द्र आदि विवेकी चतुर धावकों ने सहयोग दिया था. और राजा विक्रमसिंह ने जिनमंदिर के संरक्षण पूजन और जीर्णोद्धार के लिये दान दिया था. यह लेख जैसवाल जाति के लिये महत्त्वपूर्ण है. ग्वालियर स्टेट के ऐसे बहुत से स्थान हैं जिनमें जैनियों और बौद्धों तथा हिन्दुओं की पुरातन सामग्री पाई जाती है. भेलसा ( विदिशा ) वेसनगर, उदयगिरि, बडोह, बरो (बडनगर ) मंदसौर, नरवर, ग्यारसपुर सुहानियाँ, गूडर, भीमपुर, पद्मावती, जोरा, चंदेरी, मुरार आदि अनेक स्थान हैं. इनमें से यहाँ उदयगिरि, नरवर और सुहानियां के सम्बन्ध में संक्षिप्त प्रकाश डाला जायगा. उदयगिरि :- भेलसा जिले में उदयगिरि नामका एक प्राचीन स्थान है. भेलसा से ४ मील दूर पहाड़ी में कटे मंदिर हुए हैं. पहाड़ी पौन मील के करीब लम्बी और ३०० फुट की ऊंचाई को लिये हुए है. यहां गुफाएँ हैं, जिनमें प्रथम और २० वें नम्बर की गुफा जैनियों की है. २० वीं गुफा जैनियों के तेवीसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ की है. उसमें सन् ४२५४२६ का गुप्तकालीन एक अभिलेख है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है : "सिद्धों को नमस्कार. श्रीसंयुक्त गुणसमुद्र गुप्तान्वय के सम्राट् कुमारगुप्त के वर्द्धमानराज्य शासन के १०६ वें वर्ष और कार्तिक महीने की कृष्ण पंचमी के दिन गृहाद्वार में विस्तृत सर्पण से युक्त शत्रुओं को जीतने वाले जिनश्रेष्ठ पार्श्वनाथ जिन की मूर्ति शमदमवान शंकर ने बनवाई, जो आचार्य भद्रान्वय के भूषण और प्रार्य कुलोत्पन्न आचार्य गोशमं मुनि के शिष्य तथा दूसरों द्वारा अजेय रिपुघ्त मानी अश्वपति भट संघिल और पद्मावती के पुत्र शंकर इस नाम से लोक कुरुवों के सदृश उत्तर प्रान्त के श्रेष्ठ देश में उत्पन्न कर्मरूपी शत्रु समूह के क्षय के लिये हो." वह मूल लेख में विश्रुत तथा शास्त्रोक्त यतिमार्ग में स्थित था और वह उत्तर हुआ था, उसके इस पावन कार्य में जो पुण्य हुआ हो वह सब इस प्रकार है : १. नमः सिद्धेभ्यः ( 1 ) श्रीसंकुलानां गुणतोयधीनां गुप्तान्यानां नृपसत्तमानाम् Jain En Inte १. श्रासीद्विशुद्धतरबोधचरित्रदृष्टि : निःशेषसूरिनतमस्तकधारिताज्ञः | श्रीलाटबागड गणोन्नतरोहयाद्रि माविय भूतचरितो गुरुदेवसेनः || २. सं० ११५२ वैशाखसुदि पञ्चम्यां श्री काष्टा संघ महाचार्यवर्य श्री देवसेन पादुका युगलम् . 3. See Archaeological Survey of India, V. L. 2, P. 102. ४. एपिग्राफिका इंदिका जिल्द २ पृष्ठ २३२-४०. C Sama wwwwwwgainderary.org
SR No.211615
Book TitleMadhya Bharat ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size2 MB
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