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७०८ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह की आस्था जैनधर्म पर पूर्ण रूप से रही है. तत्कालीन विद्वान् भट्टारकों का प्रभाव इन पर अंकित रहा है. यद्यपि तोमर वंश के पूर्व भी कछवाह और प्रतिहार वंश के राजाओं के राज्यकाल में भी ग्वालियर और पार्श्ववर्ती इलाकों में जैन धर्म का सूर्य चमक रहा था. परन्तु तोमर वंश के समय धर्म की विशेष अभिवृद्धि हुई. राजा विक्रमसिंह या वीरमदेव के समय जैसवाल वंशी सेठ कुशराज उनके मंत्री थे, जो जैन धर्म के अनुयायी और श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करते थे. इनकी प्रेरणा और भट्टारक गुणकीर्ति के आदेश से पद्मनाभ कायस्थ ने, जो जैन धर्म पर श्रद्धा रखता था, यशोधरचरित की रचना की थी. '
ग्वालियर और उसके आस-पास के जैन पुरातत्त्व और विद्वान् भट्टारकों तथा कवियों की ग्रन्थरचनाओं का अवलोकन करने से स्पष्ट पता चलता है कि वहां जैनधर्म उक्त समय में खूब पल्लवित रहा. ग्वालियर उस समय उसका केन्द्रस्थल बना हुआ था. वहाँ ३६ जातियों का निवास था पर परस्पर में विरोध नहीं था. जैन जनता अपनी धार्मिक परिणति, उदारता, कर्तव्यपरायणता, देव गुरु-शास्त्र की भक्ति और दानधर्मादि कार्यों में सोत्साह भाग लेती थी. उसी का प्रभाव था कि जैन धर्म और उसकी अनुयायी जनता पर सबका वात्सल्य बना हुआ था. उस समय अनेक जैन राजकीय उच्चपदों पर सेवाकार्य करते थे. जो राज्य के संरक्षण पर सदा दृष्टि रखते थे. वर्तमान में भी जैनियों की वहाँ अच्छी संख्या है.
खास कर राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह के शासनकाल में (वि० सं० १४८१ से सं० १५३६ तक ) ३३ वर्ष पर्यन्त किले में जैन मूर्तियों की खुदाई का कार्य चला है. पिता और पुत्र दोनों ने ही बड़ी आस्था से उसमें सहयोग दिया था. अनेक प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न किये थे. दोनों के राज्यकाल में प्रतिष्ठित मूर्तियां ग्वालियर में अत्यधिक पाई जाती हैं, जिनमें सं० १४६७ से १५२५ तक के लेख भी अंकित मिलते हैं. ग्रन्थ रचना भी उस समय अधिक हुई है. देवभक्ति के साथ श्रुतिभक्ति का पर्याप्त प्रचार रहा है. वहाँ के एक सेठ पद्मसिंह ने जहाँ अनेक जिनालयों, मूर्तियों का निर्माण एवं प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न कराया था, वह जिनभक्ति से प्रेरित होकर एक लक्ष ग्रन्थ लिखवाकर तत्कालीन जैन साधुओं और जैन मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों को प्रदान किये थे. ऐसा आदिपुराण की सं० १५२१ की एक लिपि प्रशस्ति से जाना जाता है. इन सब कार्यों से उस समय की धार्मिक जनता के आचार-विचारों का और सामाजिक प्रवृत्तियों का सहज ही परिज्ञान हो जाता है. उस समय के कवि रद्दधू ने अपने पार्श्वपुराण की आद्यन्त प्रशस्ति में उस समय के जैनियों की सामाजिक और धार्मिक परिणति का सुन्दर चित्रण किया है.
सन् १५३६ के बाद दुर्ग पर इब्राहीम लोदी का अधिकार हो गया. मुसलमानों ने अपने शासनकाल में उक्त किले को कैदखाना ही बना कर रक्खा पश्चात् दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया. जब बाबर उस दुर्ग को देखने के लिये गया, तब उसने उरवाही द्वार के दोनों ओर चट्टानों पर उत्कीर्ण की हुई उन नग्न दिगम्बर जैन मूर्तियों के विनाश करने की आज्ञा दे दी. यह उसका कार्य कितना नृशंस एवं घृणापूर्ण था, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं.
सन् १८९१ में दुर्ग पर मराठों का अधिकार हो गया, तब से उन्हीं का शासन रहा और अब स्वतंत्र भारत में मध्यप्रदेश का शासन चल रहा है.
जैन मन्दिर और मूर्तियां : किले में कई जगह जैन मूर्तियां खुदी हुई है किला कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इस किले में से शहर के लिये एक सड़क जाती है. इस सड़क के किनारे दोनों ओर विशाल चट्टानों पर उत्कीर्ण हुई कुछ जंगमूर्तियां अंकित है. ये सब मूर्तियाँ पाषाणों की कर्कश चट्टानों को खोद कर बनाई गई हैं. किले में हावी दरवाजा और सास-बहू के मन्दिरों के मध्य में एक जैन मन्दिर है जिसे मुगलशासनकाल में एक मस्जिद के रूप में बदल दिया गया था. खुदाई करने पर नीचे एक कमरा मिला है जिसमें कई नग्न जैन मूर्तियाँ हैं और एक लेख भी सन् १९०८
१. देखो, 'यशोधर चरित और पद्मनाभ कायस्थ' नामक लेख अनेकान्त वर्षे १०. २. देखो, बाबर का आत्मचरित.
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