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________________ २१२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड लेना चाहिये ।' श्री शङ्कराचार्य ने अपने 'योगतारावली' ग्रन्थ में 'लय-योग' का वर्णन करते हुए कहा है कि-'लययोग' के सवा लाख प्रकार होते हैं। आदिनाथ ने 'हठयोग-प्रदीपिका' में लययोग के सवा करोड़ प्रकारों का निर्देश किया है और उनमें नादानुसन्धान को मुख्य बतलाया है । 'वासना का संयमन करते हुए उसका क्षय करना और सभी वृत्तियों को सर्वावस्थाओं के साथ उसका आत्मस्वरूप में लय करना 'लय-योग' है।' शरीर के अन्तर्गत नौ चक्रों में लय करना, नादानुसन्धान, प्रकाशानुसन्धान, प्रणवजप करते हुए उसकी मात्राओं के स्थान पर मब का लय करना, वृत्ति-अवस्था का लय, अहम्भाव का लय, कुण्डलिनी जागरण के पश्चात् सहस्रदल कमल में प्रकृति और पुरुष के द्वैतभाव का लय करके उसके द्वारा जीवात्मा और परमात्मा के अद्वैतभाव का ज्ञान करना आदि लययोग के प्रकार हैं। इतना ही नहीं; लययोगी ज्ञान की सप्त भूमिकाओं को भी लाँध सकता है । इसीलिये कहा गया है कि जप को तुलना में ध्यान सौ गुना अच्छा होता है, और ध्यान से सौ गुना फलवान लय होता है। इन चतुर्विध योगों में पूर्वापरता नहीं है, तथापि तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नं' के आधार पर यथेच्छरूप में क्रमोल्लेख किया है । 'शिवसंहिता' में मन्त्रयोग को प्रथम माना है। इसके बाद हठयोग, लययोग तथा राजयोग का क्रम है। प्रस्तुत लेख में हमें मन्त्र-योग की सर्वतोभद्र साधना के सम्बन्ध में ही अधिक विचार करना अभीष्ट है, अतः हम यहाँ 'मन्त्र-योग' की ही विशिष्ट चर्चा करेंगे । मन्त्रयोग के शास्त्रकारों ने सोलह अग बतलाये हैं : १. भक्ति, २. शुद्धि, ३. आसन, ४. पञ्चाङ्ग सेवन, ५. आचार, ६. धारणा, ७. दिव्यदेश सेवन, ८. प्राणक्रिया, ९. मुद्रा, १०. तर्पण, ११. हवन, १२. बलि, १३. याग, १४. जप, १५. ध्यान तथा १६. समाधि' । जिस प्रकार चन्द्रमा की सोलह कलाएँ सुन्दर और अमृत प्रदायिनी हैं, उसी प्रकार ये अंग भो सिद्धिप्रद हैं। इन अंगों का विस्तृत परिचय भो आवश्यक है। १. भक्ति-परमात्मा के प्रति समर्पण भाव । २. शुद्धि-आन्तरिक एवं बाह्य सर्वविध शुद्धता । ३. आसनस्व-स्वसाध्य कर्मानुसार शास्त्राक्त बैठने को विधि । ४. पञ्चाङ्ग सेवन-कवच, पटल, पद्धति, सहस्रनाम और स्तोत्र का पाठ तथा इनमें कथित विधियों का पालन । ५. आचार-सम्प्रदायोक्त आचरणों का अनुसरण । ६. धारणा-योगशास्त्रीय धारणाओं में निष्ठा । ७. दिव्यदेश-सेवन-पुण्यतीर्थ, पुण्यपीठ तथा पवित्र प्रदेशों में निवास अथवा यात्रा । ८. प्राणक्रिया-प्राणायाम । ९. मुद्रा-देवताओं के समक्ष उनके आयुध आदि की आकृतियों का प्रदर्शन । १०. तपंणइष्टदेव की प्रसन्नता के लिये उनके नाममन्त्रादि से तपण । ११. हवन-होम । १२. बलि-नैवेद्य । १३. याग-पूजा । १४. जप-मन्त्रजप । १५. ध्यान-इष्टदेव को आकृति-स्वरूप का ध्यान तथा १६. समाधि-इष्ट के चिन्तन में तल्लीनता । ये सालह अंग मन्त्रयाग के बाह्य ओर आन्तरिक कर्तव्यों का निर्देश करते हैं। इनके अनुसार प्रत्येक अंग को अपनी-अपनी विशिष्ट प्रक्रियाएँ हैं, प्रकार हैं तथा स्थूल एवं सूक्ष्म भेद हैं । जब किसो भो मन्त्र का जप करना हो, तो उत्तम गुरु से उसकी दीक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए। दोक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् प्राप्त मन्त्र का पुरश्चरण करना और मन्त्र के अङ्ग-उपाङ्गों का यथाविधि जप करते हए उस पुरश्चरण के दशांश क्रम से हवन, तपंण, मार्जन और अतिथिभोजनादि के विधानों को भी सम्पन्न करना चाहिए । योग के आठ अङ्गों में क्रमशः 'यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि' का जो उपदेश है, वह सभी क्रियाओं में इष्ट-मन्त्र का योग करते हए प्रयोग करना भी बतलाता है। तान्त्रिक योग की यही विशेषता है कि वह केवल क्रियाओं पर ही निर्भर न रहकर 'तज्जपस्तदर्थभावनम्' पर भी अधिक बल देता है। कोई भी क्रिया मन्त्र के सहयोग के बिना सम्पन्न नहीं होती। मन्त्र का अर्थ 'मनन-क्रिया के द्वारा त्राण-शक्ति का उदबोधन' माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211610
Book TitleMantrayog aur Uski Sarvatobhadra Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRudradev Tripathi
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mantra Tantra
File Size506 KB
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