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________________ भीनमाल से पारायण कर गौतमगौत्रीय सेठ विजयका वंशज सहदे वि. सं. ११११ में चाम्पानेर के पास भालेज नामक नगर में जाकर बस गये। वहां जाकर उसने किराणा का व्यापार किया जिस पर उसकी भंसाली उपगोत्र कायम हुई । सहदे भंसाली के दो पुत्र हुए। एक का नाम यशोधन और दूसरे का नाम सोमा था। यशोधन बड़ा ही प्रतापी पुरुष था। एक बार वह दाहज्वर से बहुत पीडित हुआ। अनेकों उपाय किये लेकिन उसकी पीड़ा शान्त नहीं हुई। विवश हो यशोधन की माता ने अपनी गोत्रजा देवी की आराधना की। तब उसकी अम्बिका नामक गोत्रजा देवी ने प्रकट होकर कहा कि तुम्हारे कुटुम्ब ने शुद्ध समकित जैन धर्म को त्याग कर मिथ्यात्व स्वीकारा है इसलिये मैंने तुम्हारे पुत्र यशोधन को दाहज्वर से पीड़ित किया है। इस पर यशोधन की माता ने अपनी गोत्रजा देवी से क्षमाप्रार्थना की एवं भविष्य में ऐसी त्रुटि न करने का वचन दिया। तब अम्बिका देवी ने उसे कहा कि तुम्हारे नगर में शुद्ध चारित्र की पालना करने वाले, विधियुक्त जैन धर्म की प्ररूपणा करने वाले श्री विजयचन्द्रजी उपाध्याय पधारे हैं उनके चरण धोकर उस जल से यशोधन का शरीर सिंचन करने पर ज्वर की पीड़ा शान्त हो जायगी। यशोधन की माता ने अपनी गोत्रजा देवी के आदेशानुसार उपाय किया जिससे यशोधन को ज्वर की पीड़ा से मुक्ति मिली। स्वस्थ होने पर यशोधन को उसकी माता ने उसकी गोत्रजा देवी द्वारा बताया हुआ सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया जिससे यशोधन भी बहत प्रभावित हया। वह उपाध्यायजी महाराज के चरणों में जा गिरा । गुरु महाराज ने उसको प्रतिबोध देकर शुद्ध समकित का रागी बनाया। यशोधन ने गुरु महाराज के मुख से बारह व्रत स्वीकार किये । यशोधन ने विनति कर श्री विजयचन्द उपाध्यायके गुरु श्री जयसिंहसूरि प्राचार्य को अपने नगर में बुलाये । उसने प्राचार्यजी का सून्दर प्रवेश महोत्सव किया। वि. सं. ११६९ वैशाख सुद ३ को प्राचार्यश्री जयसिहसूरि ने विजयचन्द उपाध्यायजी को प्राचार्यपद प्रदान किया। और उनका नाम आर्य रक्षित रक्खा । श्री पार्यरक्षित सूरि के प्राचार्य पदासीन होने के उत्सव में श्री यशोधन भंसाली ने काफी धन खर्च किया एवं महोत्सव किया। श्री पार्यरक्षितसूरि के उपदेश से श्री यशोधन भंसाली ने भालेज एवं अन्य सात नगरों में सात जिनमन्दिर बनाये । श्री शत्रु जयतीर्थ की महान संघयात्रा की। श्री यशोधर भंसाली के यशोगान की एक हस्तलिखित पुस्तक में कविता मिलती है जो निम्न प्रकार से है : भलु नगर भालेज वसे भंसाली भुजबल । तास पुत्र जयवन्त जसोधन नामे निर्मल ।। पावे परवत जत्र काज आविया गहगही। नमी देवी अम्बाई भावी रहीया तलहटी ।। प्राविया सुगुरु एहवे समे प्रार्यरक्षित सूरिवर । धन-धन यशोधन पय नमी चरण नमे चारित्रधर ।। धरी भाव मन शुद्ध बुद्धि पद प्रणभे सहि गुरु । आज सफल मुझ दिवस पुण्ये पामिया कल्पतरु ॥ जन्म मरणभय-भीति सावयवय साखे। समकितमूल सुसाधु देवगुरु धर्मह पाये ॥ DEા શ્રઆર્ય કયાણાગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211602
Book TitleBhinmal Jain Itihas ke Prushto par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Manekchand
PublisherZ_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf
Publication Year1982
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size996 KB
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