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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - का बहुमानपूर्वक नामोल्लेख किया है इनके लिये इनकी रचना आचार्य जिनभद्र ने की है, यह भी मानना ही पड़ेगा। भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपंथोधि, भगवान् भाष्यकार ऐसी स्थिति में इनकी टीका भी मिलनी चाहिए, परन्तु बात ऐसी दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम दलितकुवादिप्रवाद, नहीं है। आचार्य जिनभद्र द्वारा प्रारंभ में की गई विशेषावश्यकभाष्य प्रशस्यभाष्यशस्य काश्यपीकल्प, त्रिभुवनजनप्रथितवचनोप की सर्वप्रथम टीका में अथवा कोट्याचार्य और मलधारी हेमचन्द्र निषद्वेदी, सन्देहसन्दोहशैलशृंगभंगदम्भोलि आदि विशेषणों का की टीकाओं में इन गाथाओं की टीका नहीं मिलती। इतना ही नहीं प्रयोग किया गया है।
इन गाथाओं के अस्तित्व की सूचना तक नहीं है। आचार्य जिनभद्र के समय के विषय में मुनि श्री इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ आचार्य जिनविजयजी का मत है कि उनकी मुख्य कृति विशेषावश्यकभाष्य जिनभद्र ने न लिखी हों अपितु उस प्रति की नकल करने-कराने की जैसलमेर स्थित प्रति के अंत में मिलने वाली दो गाथाओं के वालों ने लिखी हों। ऐसी स्थिति में यह भी स्वतः सिद्ध है कि इन आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस भाष्य की रचना गाथाओं में निर्दिष्ट समय रचनासमय नहीं अपितु प्रतिलेखनसमय विक्रम संवत् ६६६ में हुई। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं - है। कोट्याचार्य के उल्लेख से यह भी निश्चित है कि आचार्य
पच सता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स। जिनभद्र की अंतिम कृति विशेषाश्यकभाष्य है। इस भाष्य की
तो चेत्तपुषिणमाए बुधदिण सातिमि णक्खत्ते।। स्वोपज्ञ टीका उनकी मृत्यु हो जाने के कारण पूर्ण न हो सकी। रज्जे णु पालणपरे सी (लाइ) च्चम्मि णरवरिन्दम्मि।
यदि विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित उक्त प्रति वलभीणगरीए इमं महवि... मि जिणभणे॥ का लेखन समय तक संवत् ५३१ अर्थात् विक्रम संवत् ६६६
माना जाए, तो विशेषावश्यकभाष्य का रचना समय इससे पूर्व मुनि श्री जिनविजयजी ने इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है
ही मानना पड़ेगा। यह भी हम जानते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य - शक संवत् ५३१ (विक्रम संवत् ६६६) में वलभी में जिस समय
आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति थी और उसकी स्वोपज्ञ टीका शीलादित्य राज्य करता था उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार
भी उनकी मृत्यु के कारण अपूर्ण रही, ऐसी दशा में यदि यह और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यकभाष्य की रचना पूर्ण हुई।
माना जाए कि जिनभद्र का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५०-६६० पं. श्री दलसख मालवणिया इस मत का विरोध करते हैं। के आसपास रहा होगा. तो अनचित नहीं है। उनकी मान्यता है कि उपर्युक्त मत मूल गाथाओं से फलित नहीं
आचार्य जिनभद्र ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। होता। उनके मतानुसार इन गाथाओं में रचनाविषयक कोई
१. विशेषावश्यकभाष्य (प्राकृत . पद्या) २. उल्लेख नहीं है। वे कहते हैं कि खंडित अक्षरों को हम यदि किसी
विशेषावश्यकभाष्यस्वोपज्ञवृत्ति (अपूर्ण-संस्कृत-गद्य) ३. मंदिर का नाम मान लें, तो इन दोनों गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं
बृहत्संग्रहणी (प्राकृत - पद्य) ४. बृहत्क्षेत्रसमास (प्राकृत-पद्य ५. रह जाता। ऐसी अवस्था में उसकी शक संवत् ५३१ में रचना हुई,
विशेषणवती (प्राकृत-पद्य) ६. जीतकल्प (प्राकृत-पद्य) ७. ऐसी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव यह है कि
जीत कल्पभाष्य (प्राकृत पद्य) ८. अनुयोगद्वारचूर्णि (प्राकृतवह प्रति उस समय लिखी जाकर उस मंदिर में रखी गई हो। इस मत
गद्य) ९. ध्यानशतक (प्राकृत-पद्य)। अन्तिम ग्रन्थ अर्थात् की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण भी दिए जा सकते हैं -
ध्यानशतक के कर्तृत्व के विषय में अभी विद्वानों को संदेह है। १. ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही मिलती हैं, अन्य किसी प्रति में नहीं। इसका अर्थ यह हआ कि ये गाथाएँ सधदासगाण मूलभाष्य की न होकर प्रति लिखी जाने तथा उक्त मंदिर में रखी संघदासगणि भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दो। जाने के समय की सूचक है। जैसलमेर की प्रति मंदिर में रखी गई भाष्य उपलब्ध है- बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पंचकल्प महाभाष्य। प्रति के आधार पर लिखी गई होगी।
मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदासगणि नाम के दो २. यदि इन गाथाओं को रचनाकालसूचक माना जाए, तो आचार्य हुए हैं - एक वसुदेवहिंडि प्रथम खण्ड के प्रणेता और
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